SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७० ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । अर्थ-जबतक सम्यक्त्वमोहनीयप्रकृति और मिश्रप्रकृति की स्थिति त्रसके पृथक्त्वसागर और एकेन्द्रियके पल्य के असंख्यातवेंभागकम एकसागरप्रमाण शेष रह जावे तब तक वह 'वेदकयोग्य' काल है अर्थात् उसकाल में वेदकसम्यक्त्व की प्राप्ति होगी, उपशमसम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होगी। उक्त दोनों प्रकृतियों की स्थिति जब इससे भी कम हो जाय वह उपशमकाल है अर्थात उस काल में प्रथमोपशमसम्यक्त्व की प्राप्ति होगी, वेदकसम्यक्त्व की नहीं। इससे सिद्ध है कि मिथ्यात्व से वेदकसम्यक्त्व उत्पन्न होता है । सूत्र १९६ में वेदकसम्यक्त्व के उत्कृष्टकाल का कथन है। वह काल उसी जीव के प्राप्त हो सकता है जो बहुतकाल तक मिथ्यात्व में रहा है। ऐसे जीव के मिथ्यात्व से वेदकसम्यक्त्व नहीं हो सकता, क्योंकि उसके वेदकयोग्यकाल समाप्त हो जाता है । अतः सूत्र १९६ की टीका में उपशमसम्यक्त्व से वेदकसम्यग्दर्शन ग्रहण कराया है । -जं. ग. 29-8-66/VII/र. ला. जैन, मेरठ ... सम्यग्दर्शन के असंख्यात लोक प्रमाण भेद होते हैं शंका-सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् उपयोग कभी स्व में कमी पर में होता है। फिर सम्यग्दर्शन का परिणमन एक सा कैसे रह सकता है ? समाधान-उपयोग तो चतन्य का परिणाम है। वह उपयोग दो प्रकार का है ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । ज्ञानोपयोग आठप्रकार का है और दर्शनोपयोग चारप्रकार का है। "उपयोगो लक्षणम् ॥ ८ ॥ स द्विविधोऽष्टचतुर्भवः ॥९॥" (त. सू०) "उभयनिमित्तवशात्पद्यमानश्चतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः।" उपयोग जीव का लक्षण है। जो अंतरंग और बहिरंग दोनोंप्रकार के निमित्तों से होता है और चैतन्य का अन्वयी है अर्थात् चैतन्य को छोड़कर अन्यत्र नहीं रहता; वह परिणाम उपयोग कहलाता है । वह उपयोग दोप्रकार का है, ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । ज्ञानोपयोग आठप्रकार का है-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंगज्ञान । दर्शनोपयोगके चार प्रकार-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, प्रवधिदर्शन और केवलदर्शन । "उपयोगः पुनरर्थग्रहणव्यापारः।" ( लघीयस्त्रय टीका ) अर्थ-ग्रहण के लिये जो व्यापार है वह उपयोग है। इसप्रकार उपयोग यद्यपि चेतनागुणरूप है, श्रद्धागुणरूप नहीं है तथापि उपयोग का और सम्यग्दर्शन का निमित्त-नैमित्तिकसंबंध है. क्योंकि जबतक तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान नहीं होगा उससमय तक र सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं हो सकता है। तत्त्वचितन से अथवा शुद्धात्मस्वरूप चिंतन से सम्यग्दर्शन दृढ होता है। श्रतकेबली के ही अवगाढ़ सम्यग्दर्शन होता है और केवलीभगवान के परमावगाढ़ सम्यग्दर्शन होता है। इस कथन से भी स्पष्ट होता है कि ज्ञान और सम्यग्दर्शन का परस्पर निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। सम्यग्दर्शन एक प्रकार का नहीं है वह असंख्यातलोकप्रमाण प्रकार का है । अतः स्व-स्वरूप के या परस्वरूप के यथार्थ चितन से सम्यग्दर्शन में निर्मलता आती है। ( See Also धवल पु० १ पृ० ३६८) -जं. ग. 18-3-71/VII/ रोशनलाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy