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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] सम्यक्त्व : विविध सम्यक्त्व का जघन्यकाल शंका- धवल पुस्तक ७ पृ० १७८ सूत्र १८९ - सम्यग्दृष्टि का जघन्यकाल क्या अनेक बार सम्यक्त्वपर्याय प्राप्त कर लेने वाले के ही होगा ? अन्य के क्यों नहीं ? समाधान- जिस जीव ने बहुत बार सम्यग्दर्शन ग्रहण कर लिया है ऐसे जीवका, सम्यक्त्व और मिथ्यात्व में माने जाने का अभ्यासी होने के कारण, सम्यक्त्व और मिथ्यात्व में रहने का काल अल्प होना संभव है, जो शुद्रभव से कम होता है । "खुद्दाभवहणं देखिण जहण मिच्छतकालस्स पोबत्तादो" ( धबल पु० ४ पृ० ४०७ ) अर्थात्- क्षुद्रभवग्रहणकाल की अपेक्षा मिथ्यात्वका जधन्यकाल और भी कम है। [ ३६६ "जहणिया संगमासंजमा सम्मतद्धा, मिच्दा, मंजमा असंजमद्धा, सम्ममिच्छत्तद्धन एवाली छप्पि अडालो तुलाओ।" ( धवल पु० ६ पृ० २७४ ) अर्थ – संयमासंयम का जघन्यकाल, सम्यक्त्वप्रकृति के उदय का अर्थात् क्षयोपशमसम्यक्त्व का जघन्यकाल, मिथ्यात्वोदय का अर्थात् मिथ्यात्व का जघन्यकाल संयम का जघन्यकाल, असंयम का जघन्यकाल और सम्यग्मिथ्यास्व के उदय का अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्व तीसरे गुणस्थान का जघन्यकाल मे छहाँकाल परस्पर तुल्य हैं। सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का जघन्यकाल बराबर है जो क्षुद्रभव से भी कम है। यह काल उसी क्षयोपशमसम्यग्वष्टि के सभव है जिसने अनेक बार सम्यक्त्व ग्रहण कर लिया है । - जै. ग. 29-8-66 / VII / र. ला. जैन, मेरठ मध्यात्वी भी वेदकसम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है शंका- धवल पु० ७ १० १५० सूत्र १९५ क्या मिध्यादृष्टि के वेदकसम्यवत्व हो सकता है, यदि नहीं तो यहाँ ऐसा क्यों लिखा ? सूत्र १९६ में उपशमसम्यक्त्व से बेदकसम्यक्त्व होना लिखा है। L Jain Education International समाधान - सूत्र १९५ में वेदक सम्यक्त्व के जघन्यकाल का कथन है । जो जीव श्रनेकवार सम्यक्त्व से मिथ्यात्व को और मिध्यात्व से सम्यक्त्व को प्राप्त हो चुका है उसी जीव के सम्यग्दर्शन का जघन्यकाल होता है । उस जीव के वह सम्यक्त्व 'वेदकसम्यग्दर्शन' होता है जब तक सम्यक्त्वप्रकृति और मिश्रप्रकृति की स्थिति । पृथक्त्वसागर नहीं हो जाती उससमय तक 'वेदकप्रायोग्यकाल' है अर्थात् उससमय तक मिध्यादृष्टिजीव के वेदकसम्यक्त्व ही होगा, उपशमसम्यक्त्व नहीं हो सकता । उदधिषुधत्तं तु तसे पल्लासंखूणमेगमेयरले । जाव व सम्मं मिस्तं वेदगजोगो व उबसमस्स तदो ।। ६१५ || ( गो० क० ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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