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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ३५६ अर्थ-उदलन करने वाले मिथ्याष्टिजीव के सम्यक्त्व मोहनीय की और सम्यग्मिथ्यात्व मोहनीय की स्थिति पृथक्त्वसागरप्रमाण त्रस के शेष रहे अथवा पल्यके असंख्यातवें भाग कम एक सागरप्रमाण एकेन्द्रिय के शेष रह जावे वहां तक 'वेदकप्रायोग्यकाल' है, क्योंकि ऐसा जीव वेदकसम्यग्दर्शन को प्राप्त कर सकता है। उपशमसम्यग्दर्शन को नहीं प्राप्त कर सकता। जब इन दोनों प्रकृतियों की स्थिति इससे भी कम रह जाय तो वह उपशम काल है, क्योंकि उस समय वेदकसम्यक्त्व नहीं हो सकता, उपशमसम्यक्त्व हो सकता है। -जै. ग. 4-7-66/IX/ र. ला. जैन मेरठ सम्यक्त्व मार्गरणा क्षायिक सम्यक्त्व दर्शनमोह की क्षपणा का प्रारम्भ कम भूमिज मनुष्य ही कर सकता है शंका-क्या देवपर्याय में भी क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है, क्योंकि देव तो समवसरण आदि में सर्वत्र जा सकता है? समाधान-दर्शनमोहनीयकर्म की क्षपणाका प्रारम्भ कर्मभूमि का मनुष्य ही कर सकता है अन्य तीनगति के जीव अर्थात देवादि दर्शनमोहनीय कर्म की क्षपणा का प्रारम्भ नहीं कर सकते हैं। लब्धिसार में श्री नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती आचार्य ने कहा भी है दसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजो मणसो।। तित्थयरपायमूले केवलिसुदकेवलीमूले ॥११०॥ अर्थ जो मनुष्य कर्मभूमि में उत्पन्न हुआ हो, तीर्थकर व अन्य केवली या श्रुतकेवली के चरणकमलों में रहता हो वही दर्शनमोह की क्षपणा का प्रारंभ करनेवाला होता है । "दंसणमोहणीयं कम्म खवेदुमाढवतो कम्हि आढवेदि, अड्डाइज्जेसु दीव-समुद्देसु पण्णारस कम्मभूमिसु जम्हि जिणा केवली तिस्थयरा तम्हि आढवेदि ॥११॥ धवल पु० ६ पृ० २४३ । दर्शनमोहनीयकर्म का क्षपण करने के लिये प्रारम्भ करता हुआ यह जीव कहाँ पर प्रारम्भ करता है ? पढाईद्वीप समुद्रों में स्थित पन्द्रह-कर्मभूमियों में जहाँ जिस काल में जिन-केवली और तीर्थंकर होते हैं वहाँ उस काल में आरम्भ करता है। "कम्मभूमिस ठिद देव-मणुसतिरिक्खाणं सम्वेसि पि गहणं किण्ण पावेदि त्ति भणिदे ण पावेदि कम्मभूमीसुप्पण्णमणुस्साणमुवयारेण कम्मभूमिववदेसादो। तो वि तिरिक्खाणं गहणं पावेदि, तेसि तत्थ वि उप्पत्ति संभवाबो ? ण, जेसि तस्थेव उप्पत्ती, ण अण्णस्थ संभवो अस्थि, तेसि चेव मणुस्साणं पण्णारस कम्मभूमिववएसो, ण तिरिक्खाणं संयपहपम्ववपरमागे उष्पज्जणेण सम्वहिचाराणं ।" धवल पु०६ पृ० २४५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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