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________________ [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार ! क्षयोपशमसम्यग्दर्शन का उत्कृष्ट काल ६६ सागर प्रमाण है उसके पश्चात् वह मिथ्यात्व में भी जा सकता. है, सम्यग्मिथ्यात्व में भी और क्षायिक सम्यग्दृष्टि भी हो सकता है । कहा भी है "अधिक से अधिक छयासठसागरोपमकाल तक जीव वेदकसम्यग्दृष्टि रहते हैं ।। १६६॥ क्योंकि, एक जीव उपशमसम्यक्त्व से वेदकसम्यक्त्व को प्राप्त होकर शेष भुज्यमान आयु से कम बीससागरोपम आयस्थितिवाले देवों में उत्पन्न हुआ। फिर वहाँ से मनुष्यों में उत्पन्न होकर पुनः मनुष्यायु से कम बाईससागरोपम आयुस्थिति वाले देवों में उत्पन्न हुआ। वहां से पुनः मनुष्यगतिमें जाकर भुज्यमान मनुष्यायु से तथा दर्शनमोह के क्षपण पर्यंत मागे भोगी जानेवाली मनुष्यायु से कम चौबीससागरोपम आयुस्थितिवाले देवों में उत्पन्न हुआ। वहां से पुनः मनुष्यगति में प्राकर वहीं बेदकसम्यक्त्व काल के अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रहने पर दर्शनमोह के क्षपण को स्थापित कर कृतकरणीय हो गया। ऐसे कृतकरणीय के अन्तिमसमय में स्थित जीव के वेदक (क्षयोपशम ) सम्यक्त्व का छयासठ सागरोपम मात्र काल पाया जाता है।" (धवल पु०७पृ० १८०) "कोई एक तियंच अथवा मनुष्य चौदहसागरोपम आयुस्थितिवाले लांतव-कापिष्ठ कल्पवासीदेवों में उत्पन्न हुआ। वहां एकसागरोपमकाल बिताकर दूसरेसागरोपम के आदिसमय में सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। तेरहसागरोपम काल वहां पर रहकर सम्यक्त्व के साथ ही च्यूत हमा और मनुष्य हो गया। उस मनुष्यभव में संयम को अथवा संयमासंयम को अनुपालन कर इस मनुष्यभवसम्बन्धी आयु से कम बाईससागरोपम आयु की स्थितिवाले आरणअच्यूतकल्प के देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्युत होकर पुनः मनुष्य हुआ। इस मनुष्यभव में संयम को अनुपालन कर उपरिम अवेयक में मनुष्यायु से कम इकतीससागरोपम आयु की स्थितिवाले अहमिन्द्र देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ पर अन्तर्मुहूर्तकम ६६ सागरोपमकाल के चरमसमय में परिणामों के निमित्त से सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। उस सम्यग्मिथ्यात्व में अन्तर्मुहूर्तकाल रहकर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त होकर, विश्राम ले, च्युत हो मनुष्य हो गया। उस मनुष्यभव में संयम को अथवा संयमासंयम को परिपालन कर, इस मनुष्यभवसंबंधी आयु से कम बीससागरोपम आय की स्थितिवाले पानत-प्रारणतकल्पों के देवों में उत्पन्न होकर पुनः यथाक्रम से मनुष्यायु से कम बाईस और चौबीससागरोपम की स्थितिवाले देवों में उत्पन्न होकर, अन्तमुहूर्तकम दो छयासठ सागरोपमकाल के अन्तिमसमय में मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ।" ( धवल पु. ५ पृ. ६ सूत्र ४ ) -जं. ग. 18-1-68/VII/ अ. दा. सर्वोपशम, देशोपशम, वेदककाल का-उपशम क्षयोपशमसम्यक्त्व के प्रकरण में 'सर्वोपशमन' 'देशोपशमन' और 'वेदकप्रायोग्यकाल' इन का क्या तात्पर्य है ? समाधान-जयधवलग्रंथ में कहा है-"सव्वोवसमो णाम तिण्हं कम्माणमुवयामावो। सम्मत्तदेसघादि. फयाणमुदओ देसोवसमो ति भण्णदे।" अर्थात् दर्शनमोहनीय कर्म की तीनों प्रकृतियों ( मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व ) का उदयाभाव (उपशम) सर्वोपशम है । मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियों का उदयाभाव (उपशम) और देशघातीस्पर्धक (सम्यक्त्वप्रकृति) का उदय, यह देशोपशम है। उदधिपुधत्तं तु तसे पल्ला संखूणमेगमेयक्खे । जाव य सम्म मिस्सं वेदगजोग्गो य उदसमस्सतवो ॥६१५॥ गो.क.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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