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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ३४६ सम्यक्त्वमार्गरणा क्षयोपशम वेदकसम्यक्त्व वेदकसम्यक्त्व के पूर्व तीन करण नहीं शंका-सादिमिथ्यादृष्टि जब क्षयोपशमसम्यक्त्व ग्रहण करता है तब तीनकरण करता है या नहीं ? समाधान-सादिमिथ्यादृष्टिजीव को क्षयोपशमसम्यक्त्व से पूर्व तीनकरण करने की आवश्यकता नहीं है। ज० ध० पु० ३ पृ० १९५ पर कहा है "अट्ठावीस संत कम्मिय मिच्छाइट्टिणा बद्धमिच्छत्त कस्स टिदिणा अंतोमुहुत्तपडिहग्रणेण पुणो सम्मत्तग्गहणपढमसमए चेव पडिग्गहकालेगण सत्तरिसागरोवमकोडाकोडी मेत्त मिच्छत्तद्विदीए सम्मत्त सम्मामिच्छत्त सु संकामि. वाए सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्स अद्धाछेदो होदि ।" अर्थ-अट्ठाईसप्रकृतियों की सत्तावाला मिथ्यादृष्टिजीव जब उत्कृष्टस्थिति के साथ मिथ्यात्वकर्म को बांधकर उत्कृष्टस्थितिबंध के योग्य उत्कृष्टसंक्लेशपरिणामों से निवृत्त होने में लगनेवाले अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कालके द्वारा पुनः सम्यक्त्वके ग्रहण करने के प्रथमसमय में ही उक्त प्रतिभग्नकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण से न्यून सत्तरकोड़ाकोड़ीसागर प्रमाण मिथ्यात्व की स्थिति को सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व में संक्रांत कर देता है, तब सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका उत्कृष्टअद्धाच्छेद होता है। इससे सिद्ध होता है कि क्षयोपशमसम्यक्त्व से पूर्व तीनकरण नहीं होते अन्यथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्व की उत्कृष्टस्थिति अन्तर्मुहूर्त कम सत्तरकोड़ाकोड़ी सम्भव नहीं हो सकती। -जें.ग.5-12-66/VIII/ र. ला. जैन क्षयोपशम सम्यक्त्व के सात भेद शंका-पं० बौलतरामजी ने क्रियाकोष में क्षयोपशमसम्यक्त्व के सात भेद कहे हैं, सो कैसे ? समाधान-पं० दौलतरामजी ने ही नहीं, किन्तु पं० बनारसीदासजी ने भी क्षयोपशमसम्यग्दर्शन के सात भेद कहे हैं तथापि आगम में क्षयोपशमसम्यग्दर्शन के वेदक व कृतकृत्यवेदक ऐसे दो भेद कहे हैं। फिर भी उन सात भेदों को इस प्रकार घटित करने का प्रयास किया जा सकता है १-उपशमसम्यग्दर्शन के पश्चात् सम्यक्त्वप्रकृति की उदीरणा होकर उदय हो जानेपर मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतियों की उदीरणा न होने से उदयावलि में मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व के द्रव्यका अभाव होने से वहाँपर इन दो प्रकृतियों का उदयाभावीक्षय नहीं पाया जाता, किन्तु उपशम पाया जाता है। ( धवल पु०१ पृ० १६९/१७२) २-मिथ्यात्वगुणस्थान से क्षयोपशमसम्यग्दर्शन को प्राप्त होनेवाले जीव के मिथ्यात्व व मिश्रप्रकृति का उदयाभावीक्षय सदवस्थारूप उपशम होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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