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________________ ३४८ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार: मोहकर्म की अद्राईसप्रकृतियों की सत्तावाला मिथ्यादृष्टि तिर्यंच अथवा मनुष्य देवकुरु अथवा उत्तरकुरु के पंचेन्द्रियतियंचयोनिमतियों में उत्पन्न हुआ और दोमास गर्भ में रहकर जन्म लेकर मुहूर्तपृथक्त्व से विशुद्ध होकर बेदकसम्यग्दृष्टि हो गया। इसी प्रकार धवल पु० ४ पृ० ३७१ सूत्र ६४ की टीका में संयमासंयम का कथन करते हुए लिखा है"बे मासे मंतोमुहुत्तेहि ऊणिया ति वत्तव्यं ।" इससे भी यही ज्ञात होता है कि कर्मभूमिया का तियंच भी दोमास गर्भ में रहकर, जन्म लेकर पृथक्त्वअंतर्मुहूतं पश्चात् सम्यक्त्व व संयमासयम को धारण कर सकता है । श्री पं०कैलाशचन्दजी ने 'तिर्यंचगति में जन्म लेने के आठ-नौ दिन बाद सम्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है किस आधार पर लिख दिया, समझ में नहीं आता है । 'सम्भव है पृथक्त्वमुहूर्त की बजाय पृथक्त्वदिवस की धारणा के कारण ऐसा लिखा गया हो, किन्तु उनका ऐसा लिखना आर्ष अनुकूल नहीं है। -जे. ग. 4-1-73/V/ कमलादेवी द्वितीयोपशमसम्यक्त्वी श्रेणी-पारोहण अवश्य करता है शंका-द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि क्या नियम से उपशमश्रणी चढेगा या आठवें गुणस्थान से पूर्व भी द्वितीयो पशमसम्यक्त्व छूट जाता है ? समाधान-द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि उपशमश्रेणी पर अवश्य आरोहण करेगा। अपूर्वकरणगुणस्थान अर्थात् आठवें गुणस्थान के प्रथमभाग के पश्चात् उसका मरण हो सकता है । आठवें गुणस्थान से पूर्व द्वितीयोपथमसम्यग्दर्शन छटना सम्भव नहीं है। यदि बीच में मरण नहीं होता है तो द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि उपशांतमोह गुणस्थान में नियम से पहुँचेगा । भव-क्षय या उपशमनकाल-क्षय इन दो कारणों से उपशांतकषाय गुणस्थान से गिरता है। "उवसंतकसायस्स पडिवादो दुविहो भवक्खयणिबंधणो उवसामणदाखणिबंधणो चेवि।" (धवल पु०६ पृ. ३१७) अर्थ-उपशांतकषाय का प्रतिपात दो प्रकारका है, भवक्षय-निबन्धन और उपशमनकालक्षय-निबन्धन । -जै.ग.26-12-68/VII/ मगनमाला १. ध्यान रखना चाहिए कि गर्भज तिर्यंच जो प्रथमोपत्रामसम्यक्त्व प्राप्त करते हैं वे भी जन्म के बाद बहुत से दिवसपृथक्त्व (यानी अनेक बार सात-आठ दिवस समूह ) व्यतीत होने पर ही प्रथमसम्यक्त्य ग्रहण के योग्य होते हैं; एक मात ७-८ दिन व्यतीत होने के बाद ही नहीं। वेदकसम्यक्त्य तिर्यंचों में जन्म के मुहूर्तपृथक्त्व बाद ही हो जाता है। (40 | ४२६) -सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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