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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ३४३ सम्यक्त्व से गिरने के पश्चात् जो उपशम सम्यक्त्व होता है वह प्रथमोपशमसम्यक्त्व हो सकता है, द्वितीयो. पशमसम्यक्त्व नहीं हो सकता, क्योंकि द्वितीयोपशमसम्यक्त्व क्षयोपशमसम्यक्त्व से होता है और प्रथमोपशमसम्यक्त्व को मिथ्यात्वी प्राप्त करता है । अतः यहाँ पर सर्वोपशमना से अभिप्राय प्रथमोपशमसम्यक्त्व का है। प्रथमोपशमसम्यक्त्व से गिरकर जब तक सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की स्थिति को उद्वेलना के द्वारा, सागरोपमपृथक्त्व से नीचे नहीं करता उस समय तक उसको पुनः प्रथमोपशमसम्यक्त्व नहीं हो सकता है और पल्योपम के असंख्यातवें. भागमात्र काल के बिना, सम्यक्त्व व मिश्रप्रकृति की स्थिति का सागरोपमपृथक्त्व काल से नीचे पतन नहीं हो सकता है. अतः पल्योपम के असंख्यातवेंभाग के पश्चात् ही पुनः प्रथमोपशमसम्यक्त्व होना संभव है। कहा भी है "उवसमसम्मादिट्ठी मिच्छते गंतूण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उज्वेल्लमाणो तेसिमंतोकोडाकोडीत्तलिदि घादिय सागरोबम पुधत्तादो जाव हेठा ण करेदि ताव ताव उवसमसम्मत्तगहणसंभवाभावा । पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्तकालेण विणा सागरोवमपुधत्तस्स हेट्ठा पदणांणुववत्तीदो।" ( धवल पु० ५ पृ० १०) इसका अभिप्राय ऊपर कहा जा चुका है। अर्घपुद्गल-परिवर्तन काल की अपेक्षा पल्यका असंख्याताभाग बहुत अल्प है, अतः प्रथमोपशमसम्यक्त्व को भी पुनः पुनः अतिशीघ्र होना कहा गया है। -जं. ग. 24-4-69/V/ र. ला. जैन (१) प्रथमोपशम सम्यक्त्व एक भव में कई बार हो सकता है (२) उद्वेलना काण्डक के द्वारा स्थिति घात होते हैं शंका-धवल पु० ६ पृ० २४१ पर "उपशमसम्यक्त्व पुनः पुनः होता है सर्वोपशम व देशोपशम से भजनीय है" ऐसा लिखा है। किन्तु प्रथमोपशमसम्यक्त्व तो पल्य के असंख्यातवें भाग पश्चात होता है, एकभव में एक हो बार संभव है । सो प्रथमोपशमसम्यक्त्व पुनः पुनः कैसे हो सकता है ? समाधान-धवल पु० ६ पृ० २४१ पर जो गाथा उद्धृत की गई वह कषायपाहुड की गाथा नं० १०४ है। क्षयोपशमसम्यग्दर्शन तो छूटने से एक अन्तर्मुहूर्त पश्चात् हो सकता है इसलिए कर्मभूमियामनुष्य या तिथंच के एकभव में कई बार हो सकता है, किन्तु प्रथमोपशमसम्यग्दर्शन का जघन्य अन्तरकाल भी पल्य का असंख्यातवांभाग अर्थात् असंख्यातवर्ष है जैसा धवल पु० ५ पृ० १० पर कहा है "उपशमसम्यग्दृष्टिजीव मिथ्यात्व को प्राप्त होकर, सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति की उद्वेलना करता हमा, उनकी अंतःकोडाकोडीप्रमाण स्थिति को घात करके सागरोपम से अथवा सागरोपमपृथक्त्व से जब तक नीचे नहीं करता है तब तक उपशमसम्यक्त्व का ग्रहण करना ही संभव नहीं है। पल्योपम के असंख्यातवें ति का एक उद्वेलनाकांडक के द्वारा घात होता है। अन्तमुहूर्त उत्कीर्णकालवाले उद्वेलनाकांडकोंसे धात की जानेवाली सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की स्थिति का पल्योपम के असंख्यातवेंभागमात्र काल के बिना सागरोपम के अथवा सागरोपमपृथक्त्व के नीचे पतन नहीं हो सकता है।" एकसnanार ___इसलिए कर्मभूमिया के एकभव में प्रथमोपशमसम्यक्त्व होना असंभव है, किन्तु पल्योपम आयुवाले भोगभूमिया मनुष्य व तिथंच तथा सागरोपम आयुवाले देव व नारंकियों के प्रथमोपशमसम्यक्त्व भी एक भव में कई बार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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