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________________ ३४२ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : ध्यात्व प्रकृति का, पत्योपम के असंख्यातवें भागमात्र काल के बिना सागरोपम के अथवा सागरोपमपृथक्त्व के नीचे पतन नहीं हो सकता । - जै. ग. 25-5-78/VI / मुनि श्रुतसागरजी मोरेना वाले प्रथमोपशम सम्यक्त्वी के अनन्तानुबंधी की विसंयोजना के विषय में मतद्वय शंका-क्या प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि को अनन्तानुबंधी की विसंयोजना होना संभव है ? यदि नहीं तो क० पा० पुस्तक २, पृष्ठ २३२ पर उपशमसम्यग्दृष्टि के २४ प्रकृति विभक्ति का स्थान क्यों बताया गया ? क्या यह द्वितीयोपशमसम्यक्त्व को अपेक्षा से है, यदि प्रथमोपशमसम्यक्स्व की अपेक्षा से है तो पृ० ४३१ पर उपशमसम्यग्दृष्टि को वृद्धि, हानि व अवस्थान पदों के न होने का नियम क्यों किया गया ? समाधान ---- प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि मनन्तानुबंधी की विसंयोजना करता है या नहीं इस पर आचार्यों के दो मत हैं । एक आचार्य के मत के अनुसार प्रथमोपशमसम्यग्डष्टि अनन्तानुबंधी की विसंयोजना कर सकता है और दूसरे आचार्य के मतानुसार प्रथमोपशमसम्यग्दष्टि श्रनन्तानुबंधी की विसंयोजना नहीं कर सकता । यह दोनों ही मत ग्रहण करने योग्य हैं, क्योंकि वर्तमानकाल में केवली, श्रुतकेवली का अभाव होने के कारण ऐसा कोई साधन नहीं है जिससे यह निर्णय किया जा सके कि इन दोनों में से अमुक उपदेश सूत्रानुसार है । इस विषय को स्वयं वीरसेनस्वामी ने क० पा० पु० २, पृष्ठ ४१७-४१८ पर विशद रूप से स्पष्ट किया है । पृष्ठ २२० पर विशेषार्थं में भी इस संबंध में लिखा गया है। विशेष के लिये उक्त प्रकरण ग्रन्थ से देखने चाहिये । - जै. स. 24-7-58/V / जि. कु. जैन, पानीपत प्रथम व द्वितीय उपशम सम्यक्त्व में से कब कौनसा सम्यक्त्व होता है ? शंका- धवल पु० ६ ० २४१ - " जो जीब सम्यक्त्व से गिरकर जल्दी ही पुनः पुनः सम्यक्त्व को ग्रहण करता है वह सर्वोपशमना और देशोपशमना से भजनीय है।" प्रश्न यह है कि सम्यक् प्रकृति और सम्यग्मिम्यात्वप्रकृति की उलना बिना सर्वोपशमना किस प्रकार संभव है ? क्या द्वितीयोपशमसम्यक्त्व से अभिप्राय है ? समाधान — धवल पृ० ६ पृ० २४१ पर जो गाथा ११ है वह क० पा० की गाथा १०४ है । इसका उत्तरार्द्ध इस प्रकार है 'भजिबम्बो य अभिक्खं सव्वोवसमेण देसेण ।" अर्थात् - जो जीव सम्यक्त्व से गिरकर अभीक्ष्ण अर्थात् जल्दी ही पुनः पुनः सम्यक्त्व को ग्रहण करता है वह सर्वोपशम और देशोपशम से भजनीय है । "तस्थ सम्वोवसमो नाम तिच्हं कम्माणमुदयाभावो । सम्मत्तदेशघावि कट्याणमुदओ बेसोवसमो ति भण्णदे । " ( जयधवल) यहाँ पर दर्शनमोहनीय की, सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति और मिथ्यात्वप्रकृति इन तीनों प्रकृतियों के उदयाभाव को सर्वोपशम कहते हैं। देशघातिरूप सम्यक्त्वप्रकृति के उदय को देशोपशमना कहते हैं । अर्थात सर्वोपशम से अभिप्राय उपशमसम्यक्त्व का है और देशोपशमना का अभिप्राय क्षयोपशमसम्यक्त्व से है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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