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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ३३१ सम्यक्त्व मार्गरणा उपशम सम्यक्त्व : (१) सर्वप्रथम उपशम सम्यक्त्व ही होता है (२) अनादि मिथ्यात्वी को प्रथम सम्यक्त्व लाभ के बाद पतन का नियम नहीं शंका-उपशमसम्यक्त्व अनाविमिथ्यादृष्टि को होकर नियम से छूटता है तो उसी भव से मोक्ष जाने में क्या बिना उपशमसम्यक्त्व के क्षयोपशम या क्षायिकसम्यक्त्व हो जाता है ? समाधान-दर्शनमोहनीय कर्म की तीन प्रकृतियाँ हैं मिथ्यात्व, सम्यग्मिध्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति ( मोक्षशास्त्र अ० ८ सत्र ९)। इस तीन में से मिथ्यात्वप्रकृति का बंध होता है और शेष दो प्रकृतियों का बंध नहीं होता, किन्तु सम्यग्दर्शन हो जानेपर मिथ्यात्वद्रव्यकर्म के तीन खंड होकर मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति बन जाती है (गो० साक० व ल. सा०)। अनादिमिथ्यादृष्टि के दर्शनमोहनीयकर्म की मिथ्यात्वप्रकृति का सत्त्व पाया जाता है अतः अनादिमिथ्यादृष्टि को प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अतिरिक्त अन्य सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं होती। कहा भी है सम्मतपमढलंमो सवोवसमेण तह वियण । मजियग्वो य अभिक्खं सम्वोवसमेण देसेण ॥ १०४ ॥ (कषायपार सुत्त) अर्थ-अनादिमिथ्याष्टिजीव के जो प्रथम बार सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है वह प्रथमोपशमसम्यक्त्व होता है। ज० ध० पु०९ पृ० ३१४-३१७ पर कहा है 'अनादिमिथ्यादृष्टिजीव ने उपशमसम्यक्त्व को उत्पन्न करके गुणसंक्रम के व्यतीत हो जाने पर विध्यातसंक्रम के द्वारा अल्पतरसंक्रम का प्रारम्भ करके तथा वेदकसम्यक्त्व को प्राप्त हो अन्तमुहूर्त कम छयासठ सागरकाल तक उसके साथ परिभ्रमण करके दर्शनमोहनीय की क्षपणा की।' इससे सिद्ध होता है कि जयधवल के मतानुसार अनादिमिथ्याइष्टि के उपशमसम्यक्त्व होने के पश्चात सम्यग्दर्शन छूटने का नियम नहीं है। अनादिमिथ्यादृष्टि के उपशमसम्यक्त्व होने के पश्चात् सम्यग्दर्शन छूट भी जावे तो पुनः क्षयोपशमसम्यक्त्व को उत्पन्न कर क्षायिकसम्यक्त्व हो सकता है ( ज० ध० पु. ९ पृ० ३१४-३६९ ) अतः अनादिमिथ्यादृष्टि मनुष्य उपशमसम्यक्त्व को उत्पन्न कर उसी भव से मोक्ष जा सकता है। #.ग. 14-5-64/IX/अ. स. म. प्रथमोपशम सम्यक्त्व में संयत से असंयत नहीं होता शंका-धवल पुस्तक ७ पृ० १७२ सूत्र १६८ पर लिखा है कि 'उपशमसम्यक्त्वके कालमें छहावलियां शेष रहने पर असंयमको प्राप्त होकर'-तो क्या उपशमसम्यक्त्वके कालमें छहावलियों से अधिक शेष रहने पर चतुर्थगुणस्थान नहीं हो सकता ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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