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________________ ३३० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार जीव निकलकर मोक्ष को जाते रहेंगे। इन दोनों में से कभी भी किसी का अन्त नहीं होगा । यदि काल का अन्त जावे श्रौर भव्यजीव नित्यनिगोद में पड़े रह जावें तो कह सकते हैं कि ये जीव कभी मोक्ष नहीं जावेंगे, क्योंकि अब निगोद से निकलना बन्द हो गया; परन्तु ऐसा है नहीं । अनेकान्त है - ऐसा भी कह सकते हैं कि ऐसे भी भव्यजीव हैं जो अनन्तकाल तक मोक्ष नहीं जावेंगे, अथवा यह भी कह सकते हैं कि ऐसे भी भव्य जीव हैं जो कभी मोक्ष नहीं जावेंगे। दोनों का अभिप्राय एक है मात्र विवक्षा भेद है । नित्यनिगोद में पड़े रहने के कारण उन भव्यों को मोक्ष जाने का निमित्त नहीं मिलता, इसलिये मोक्ष नहीं जा पाते किन्तु अभव्यों को निमित्त मिलता रहता है क्योंकि वे व्यवहारराशि में हैं किन्तु शक्ति के अभाव के कारण वे मोक्ष नहीं जा पाते । इनके लिये क्रमशः शीलवती विधवा स्त्री और बांझ स्त्री का दृष्टान्त है । - जै. ग. 25-6-64 / 1X / र. ला. जैन, मेरठ दूरातिदूर भव्य को सम्यक्त्व नहीं होता शंका- दूरातिदूरभव्य को सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है या नहीं ? अगर नहीं होती तो फिर 'भव्य' नाम कैसे ? और होती है तो फिर मुक्ति क्यों नहीं ? समाधान — दूरातिदूरभम्य को सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती है । उनको ( दूरातिदूर भव्यों को ) भव्य इसलिए कहा गया है कि उनमें शक्तिरूप से तो संसारविनाश की सम्भावना है, किन्तु उसकी व्यक्ति नहीं होगी । ( ष० खं० ७ / १७६-१७७ ) - जै. सं. 28-6-56 / VI / र. ला. जैन, केकड़ी दूरातिदूर भव्यों का मोक्षाभाव शंका- दूरातिदूर भव्य का क्या अर्थ है ? क्या वे कभी भी मोक्ष नहीं जायेंगे ? समाधान - भविष्यकाल समाप्त नहीं होगा और भव्यजीवों का मोक्ष जाना भी समाप्त नहीं होगा । इसलिये जो जीव अनन्तानन्तकाल तक मोक्ष नहीं जायेंगे वे दूरातिदूरभव्य कहलाते हैं । कहा भी है "केचिद् भव्याः संख्ये येन कालेन सेत्स्यन्ति केचिदसंख्येयेन, केचिदनन्तेन, अपरे अनन्तानन्तेनापि न सेत्स्यन्तीति । " ( राजवार्तिक १।३।९ ) । अर्थ —— कोई भव्य संख्यातकाल में, कोई असंख्यातकाल में, कोई अनन्तकाल में मोक्ष चले जायेंगे। दूसरे जीव अनन्तानन्तकाल तक भी मोक्ष नहीं जायेंगे । "योऽनन्तेनापि कालेन न सेत्स्यन्त्यसावभव्य ऐवति चेत्, न भव्यराश्यन्तर्भावात् । " ( राजवार्तिक २२७/९ ) अर्थ - जो अनन्तकाल तक मोक्ष नहीं जायेंगे वे अभव्य हैं, ऐसा कहना युक्त नहीं है, क्योंकि उनका भी भव्यराशि में अन्तर्भाव है । Jain Education International - जै. ग. 10-1-66/ VIII / ज. प्र. म. कु. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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