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________________ ३२८ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : - अर्थ-जो जीव सिद्धत्व पाने के योग्य हैं उन्हें भव्य सिद्ध कहते हैं, किन्तु उनके कनकोत्पल (स्वर्णपाषाण) के समान मलका नाश होने का नियम नहीं है । जिसप्रकार स्वर्णपाषाण में सोना रहते हुए भी अग्नि आदि बाह्य साधनों के ऊपर निर्भर होने के कारण उसके मलका प्रभाव होना निश्चित नहीं है, उसी प्रकार सिद्धअवस्था की योग्यता रखते हुए भी तदनुकूल सामग्री के नहीं मिलने से सिद्धपद की प्राप्ति नहीं होती है। -जे. ग. 25-7-66/IX/ प्र. सत्चिदानन्द (१) मोक्ष नहीं जाने पर भी भव्यशक्ति के सद्भाव से भव्य हैं (२) प्रभव्य समान भव्यों में ध्र वपद नहीं है (३) अभव्य व्यवहार राशि में हैं तथा प्रभव्य समान भव्य सब नित्य निगोद में पड़े हैं शंका-क्या कोई ऐसे भी भव्य हैं जो कभी मोक्ष नहीं जायेंगे ? यदि हैं तो उनमें और अभध्यों में क्या अन्तर है ? समाधान-धवल पु० १४ पृ० १३-चार प्रघातियाकर्मों के उदय से उत्पन्न हुआ असिद्धभाव है । वह दो प्रकार का है। अनादिअनंत और अनादिसान्त । जिनके अनादिअनंत हैं वे अभव्य हैं दूसरे भव्य हैं। अनादिअनन्तपना और अनादिसान्तपना निष्कारण है, अतः पारिणामिक माना है। "जिसने निर्वाण को पुरस्कृत किया है उसको भव्य कहते हैं। इनसे विपरीत अभव्य हैं।" धवल पु० १ पृ० १५० । जो जीव सिद्धत्व के योग्य हैं उन्हें भव्य सिद्ध कहते हैं, किन्तु उनके कनकोपल-मल का नाश होने का नियम नहीं। गो० जी० गाथा ४८९ । धवल १ पृ० ३९३-मुक्ति जाने की योग्यता की अपेक्षा मुक्ति को नहीं जानेवाले जीवोंके भव्य संज्ञा बन जाती है। जितने भी जीव मुक्ति जाने के योग्य होते हैं वे सब नियम से कलंकरहित होते हैं ऐसा कोई नियम नहीं. क्योंकि सर्वथा मान लेने पर स्वर्णपाषाण से व्यभिचार आ जायगा ( सर्व ही स्वर्ण-पाषाण को शुद्ध स्वर्णरूप हो जाना चाहिये, किन्तु ऐसा है नहीं। यदि ऐसा मान लिया जावे तो एक दिन स्वर्णपाषाण के प्रभाव का प्रसंग आ जायगा ) । भव्यों से विपरीत अर्थात् मुक्ति-गमन की योग्यता न रखनेवाले अभव्यजीव हैं। जिन जीवों की अनंतचतुष्टयरूप सिद्धि होने वाली हो अथवा जो उसकी प्राप्ति के योग्य हों उन्हें भव्यसिद्ध कहते हैं तथा इनसे विपरीत अभव्य होते हैं। जो संसार से निकलकर कभी मुक्ति को प्राप्त नहीं होते हैं। गो० जी० गा० १९६। सिद्धि पुरस्कृत अर्थात् मुक्तिगामी जीवों को भव्य और इनसे विपरीत जीवों को अभव्य कहते हैं। धवल पु०७ पृ० २४२ । शंका-अभव्यों के समान भी तो भव्य जीव होते हैं तो फिर भव्यभाव को अनादिअनन्त क्यों नहीं कहा? समाधान नहीं कहा, क्योंकि भव्यत्व में अविनाशशक्ति का अभाव है। यहां भव्यत्व शक्ति का अधिकार है उसकी व्यक्ति का नहीं। पर्यायाधिक नय के अवलम्बन से भव्यका संसार अन्तरहित है, किन्तु सम्यक्त्व ग्रहणकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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