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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ३२७ करने का पुरुषार्थं करता है, तब उसके कर्मों की स्थिति कटकर अन्तःकोटाकोटीसागर रह जाती है। जो जीव पर्यायों को सर्वथा नियत मानकर यह कहते हैं जब काललब्धि अथवा होनहार होगी उस समय स्वयमेव प्रयत्न रूप पर्याय तथा प्रायोग्य लब्धि हो जावेगी; उन एकान्त मिथ्यादृष्टियों के यथार्थ तत्त्वविचार भी नहीं होता । यथार्थं तत्वविचार बिना सम्यग्दर्शन की प्राप्ति दुर्लभ है। तस्वविचार और तत्त्वश्रद्धान इन दोनों में अन्तर है। - जै. ग. 29-7-65/XI / ला ला. जैन विदेह क्षेत्र में प्रभव्य शंका-विवेहक्षेत्र में केवल भव्य जीव ही होते हैं या अभव्य भी होते हैं ? समाधान – ध० पु० ७ पृ० ३०७ सूत्र १०८ में कहा गया है अभव्य का क्षेत्र सर्वलोक है । इस सूत्र की टीका में श्री वीरसेन आचार्य ने कहा है कि अभव्य जीव सर्वलोक में रहते हैं, क्योंकि वे अनन्त हैं । सर्वलोक में विदेहक्षेत्र भी प्रागया । धतः विदेहक्षेत्र में प्रभव्यजीव रहते हैं, यह उक्त आगम प्रमाण से सिद्ध है। - जै. ग. 2-4-64 / 1X / मगनमाला एक ही जीव में भव्यस्व भाव में कथंचित् परिवर्तन शंका- धवल पु० ७ पृ० १७७ सूत्र १८५ की टीका में कहा है कि सम्यवत्व ग्रहण कर लेने पर अन्य ही भव्यभाव उत्पन्न हो जाता है। पृ० १७६ सूत्र १८४ की टीका में ऐसा क्यों कहा कि 'अनादिस्वरूप से आये हुए भव्यभाव का अयोगकेवली के अन्तिमसमय में विनाश पाया जाता है ? समाधान- धवल पु० ७ पृ० १७७ सूत्र १८५ में भव्यभाव को सादि सान्त पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से विशेष भव्यत्वभाव का कथन किया है, क्योंकि जब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता, तब तक भव्यत्वभाव अनादिअनन्त है इसका कारण यह है कि तब तक उस जीव का संसार प्रन्त रहित है, किन्तु सम्यक्त्व उत्पन्न होने पर अनन्त संसार की स्थिति छिदकर केवल अर्धपुदगलपरिवर्तन मात्र काल तक संसार में स्थित रहती है । पृ० १७६ सूत्र १८४ में द्रव्याधिकनय की अपेक्षा सामान्य भव्यत्वभाव का कथन है। अतः नयविवक्षा से दोनों सूत्रों के कथन में कोई विरोध नहीं है । Jain Education International — जै. ग. 15-8-66 / IX / र. ला. जैन, मेरठ दूरातिदूर भव्यों को भव्य व्यपदेश क्यों ? शंका- दूरातिदूर भव्यजीव जब मोक्ष नहीं जायेंगे तो उनको भव्य क्यों कहा है समाधान- भव्यजीवों में संसार के अविनाशशक्ति का प्रभाव है। अर्थात् यद्यपि धनादि से धनन्तकालतक रहनेवाले भव्यजीव हैं, पर उनमें संसार विनाश की शक्ति है ( घबल पु० ७ ० १६४ ) । सिद्धत्तणस्य जोग्गा जे जीवा ते हवंति भवसिद्धा । ण उ मल विगमे नियमो ताणं कणगोवलाणमिव ।। ९५ ।। For Private & Personal Use Only ( धवल पु० १ ० १५० ) www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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