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________________ ३२२ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : लेण्या के साथ अपनी-अपनी आयुस्थिति प्रमाण रहकर वहां से निकल अन्तर्मुहूर्त काल उन्हीं लेश्याओं सहित व्यतीत करके अन्य अविरुद्ध लेश्या में गए हुए जीव के उक्त तीन लेश्याओं का दो अन्तर्मुहूर्त सहित क्रमश. तैतीस, सत्तरह व सात सागरोपम काल पाया जाता है । अतः इस कथन के अनुसार नरकों में अन्य लेश्यारूप परिवर्तन नहीं होता। इस कारण वहाँ पर तेजोलेश्या सम्भव नहीं है। गोम्मटसार जीवकाण्ड के अनुसार—जिसके द्वारा जीव अपने को पुण्य-पाप से लिप्त करे उसे लेश्या कहते हैं ( गाथा ४८८)। नरकों में कापोत, नील व कृष्ण ये तीन अशुभ लेश्या प्रथमादि पृथ्वियों में होती हैं। यह स्वामी अधिकार का कथन भावलेश्या की अपेक्षा से है (गाथा ५२८)। कृष्णलेश्या का उत्कृष्टकाल तैतीससागर, नीललेश्या का सत्तरहसागर, कापोत लेश्या का सातसागर है। यह उत्कृष्टकाल नरक में होता है क्योंकि सातवें नरकमें तैतीससागर, पांचवें नरक में सत्तरहसागर और तीसरे नरक में सातसागर उत्कृष्ट आयु होती है (गाथा ५५१)। इससे भी स्पष्ट है कि नरक में आयु पर्यंत अपनी-अपनी ही लेश्या रहती है। एकलेश्या पलटकर दूसरी लेश्या नहीं हो जाती है। लेश्याओं में दो प्रकार का संक्रमण है-(१) स्वस्थान संक्रमण (२) परस्थान संक्रमण नरकों में परस्थानसंक्रमण नहीं होता है। स्वस्थानसंक्रमण में षट्स्थानपतित हानिवृद्धि होती है। नारकियों में अपनी-अपनी लेश्याओं का षट्स्थानरूप स्वस्थान संक्रमण सम्भव है जो अन्तमुहर्त बाद होता रहता है (गाथा ५०३-५०५)। कहीं पर इस षटस्थान परिवर्तन को इन शब्दों में भी लिख दिया है भावलेश्यास्तु षडपि प्रत्येक मन्तमहर्तपरिवर्तिन्यः । गो० जी० गाथा ४९५ में सम्पूर्ण नारकियों के कृष्ण वर्ण द्रव्यलेश्या कही है, किन्त सर्वार्थसिद्धि व तत्त्वार्थराजवातिक में कृष्ण, नील और कापोत तीनों द्रव्यलेश्या नारकियों के कही गई हैं। -जे. सं. 27-9-56/vI/ ध. ला. सेठी, खुरई पहले आदि नरकों में कापोत प्रादि लेश्या बदल कर नील प्रादिरूप नहीं हो जाती शंका-नरक में भावलेश्या होती है ऐसा तत्त्वार्थराजवातिक पृ० १६४ अध्याय ३ सूत्र ३ की टीका में लिखा है । यह कैसे संभव है ? समाधान-तत्त्वार्थराजवातिक पृष्ठ १६४, अध्याय ३ सूत्र ३ की टीका में यह शब्द है 'भावलेश्यस्त षडपि प्रत्येकमन्तमुहर्तपरिवर्तिन्यः।' इसका अर्थ यह है कि 'प्रत्येकभावलेश्या में अविभाग की अपेक्षा षटपतित हानि-वृद्धि के असंख्याते स्थान होते हैं। अन्तमुहूर्त के पश्चात् भावलेश्या अपने षट्पतित हानिवृद्धि स्थानों में से किसी एक स्थान में परिवर्तन कर जाती है।' इसका यह अर्थ नहीं है कि पहिले दूसरे नरक में कापोतलेश्या पलट कर पीत या नील आदि हो जाती हो। पृ. १६४, पंक्ति ६-७ में यह नियम बतला दिया है कि-पहले दूसरे और तीसरे नरक के उपरिभाग में कापोत लेश्या है। इसके बाद पांचवें नरक के उपरिभाग तक नील लेश्या है शेष में कृष्णलेश्या है । कह कथन भावलेश्या का है द्रव्यलेश्या का नहीं। ( राजवातिक पृ० २४० ) नारकियों में सबके पर्याप्तअवस्था में द्रव्य से कृष्णलेश्या होती है (धवल पु० २ पृ० ४५०, गो० जी० गाथा ४९५)। नारकियों की यह द्रव्यलेश्या आयु पर्यन्त एकसी रहती है जैसा कि राजवातिक पृ० १६४ पर कहा है "एतेषां नारकाणां स्वायुः प्रमाणावधता द्रव्यलेश्या उक्ताः' नोट-'उक्ता' शब्द से कापोतनील व कृष्णलेश्या का ग्रहण नहीं करना चाहिये । अतः राजवातिक में ऐसा नहीं कहा गया कि नरक में 'पीत पद्म व शुक्ल' लेश्या भी होती है। नरक में तीन अशुभ लेश्या ही होती हैं। -जे.सं. 30-10-58/V/ ब्र च. ला. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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