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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ३२१ अधस्तन विमानों में ही तेजोलेश्या के होने का उपदेश पाया जाता है।" अतः धवल पु०७ पृ० १७६ पर तेजोलेश्या का उत्कृष्टकाल अढ़ाई सागर कहा है। -जं. ग. 27-8-64/IX/ घ. ला. सेठी, खुरई नरक में द्रव्य-भावलेश्या एवं राजवातिककार का मत शंका-सर्वार्थसिद्धिकार तथा राजवातिककारने तीसरे चौथे अध्याय में जो लेश्याओं का वर्णन किया है वह द्रव्योश्या का है या भावलेश्या का ? तथा उन्होंने नरकों में छहों लेश्या मानी हैं जबकि वहां पर तीन अशुभ लेश्या ही होती हैं ? समाधान-सर्वार्थसिद्धि तथा राजवातिक के चौथे अध्याय में तो देवों की भावलेश्या का कथन है। तीसरे अध्याय में नारकियों के तीन अशुभलेश्या द्रव्य की अपेक्षा से कही, किन्तु भाव की अपेक्षा छहों अन्तर्मुहतं में बदलती रहती हैं । यहाँ पर 'षडपि' शब्द विचारणीय है। प्रत्येक लेश्या में छह स्थानपतित हानि-वृद्धि लिये हुए अनेकों स्थान होते हैं। जैसे कृष्णलेश्या के अनेक विकल्प या भेद या स्थान हैं। पूर्वस्थान की अपेक्षा अन्य स्थान अनन्तभागवृद्धि या हानिरूप भी हो सकता है, असंख्यातभाग, संख्यातभाग, संख्यातगुणी, असंख्यातगुणी और अनन्तगुणीवृद्धि या हानिरूप भी हो सकता है । इसप्रकार एक ही लेश्या में छहप्रकार की वृद्धि या हानिरूप स्थान संभव हैं । इनको 'षडपि' शब्द से कहा गया है। 'षडपि' का अर्थ छहों लेश्या हो सकता है, किन्तु नरक में छहों लेश्या होती हैं, ऐसा प्रतीत नहीं होता । नरकों में अपनी-अपनी अशुभलेश्या में ही छहप्रकार की वृद्धि या हानिरूप परिणमन होता रहता है। श्री वीरसेन आचार्य ने धवल पु० २ पृ० ४४९ पर नारकियों में द्रव्य की अपेक्षा एक कृष्णलेश्या बतलाई है। किन्तु सर्वार्थ सिद्धि और राजवार्तिक में तीन अशुभ लेश्या कही हैं । इसप्रकार नारकियों में द्रव्य-लेश्या की अपेक्षा मतभेद है। -जै.ग. 20-8-64/IX/घ. ला. सेठी, खुरई नारकियों के लेश्या शंका-कर्मकाण्ड हस्तलिखित टीका पं० टोडरमलजी पृ० ८२२-"यद्यपि नरक विर्षे नियमते अशुभ लेश्या है तथापि तहाँ तेजोलेश्या पाइये है, तिस लेश्या के मन्दय उदय होते प्रथम स्पर्द्धक प्राप्त होता है" इसमें तेजोलेश्या बतलाई है लेकिन तेजोलेश्या नरक में कहाँ सम्भव है ? यह समझ में नहीं आता क्योंकि नरक में तो तीनों अशुभ लेश्या पाई जाती हैं इसलिये कृपया इसका समाधान करिये। समाधान-श्री पुष्पदन्त भूतबलि के मतानुसार नरक में तेजोलेश्या नहीं होती है। लेश्या का लक्षण इस प्रकार है-आत्मप्रवृत्ति संश्लेषकरी लेश्या अथवा लिम्पतीति लेश्या अर्थः आत्मा और प्रवृत्ति (कर्म) का संश्लेषण अर्थात् संयोग करनेवाली लेश्या कहलाती है अथवा जो ( कर्मों से आत्मा का ) लेप करती है वह लेश्या है। (१० खं० पु०७ पत्र ७)। कृष्ण, नील और कापोतलेश्या का उत्कृष्ट काल साधिक तैतीस, सत्तरह व सात सागर क्रमशः कहा है। क्योंकि तिर्यंचों या मनुष्यों में कृष्ण, नील व कापोत लेश्या सहित सबसे अधिक अन्तमुहर्तकाल रहकर फिर तैतीस, सत्तरह व सात सागरोपम आयु स्थितिवाले नारकियों में उत्पन्न होकर कृष्ण, नील व काप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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