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________________ २७६ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : "पर्याय" संज्ञा मतिज्ञान की भी है एवं तज्जन्य श्रुतज्ञान की भी है शंका-धवल सिद्धान्त ग्रंथ में पु० ६ पृष्ठ २१ पर अ तज्ञान के बीस भेद बतलाते हुए पहिला भेद पर्यायनामक भुतज्ञान बतलाया है किन्तु पृ० २२ पर पर्यायज्ञान को मतिज्ञान कहा है सो क्यों ? समाधान-'पर्यायज्ञान' मतिज्ञान का सर्वजघन्य भेद है। श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है, जैसा कि मोक्षशास्त्र प्रथम अध्याय सूत्र २७ में 'श्रुतं मतिपूर्व' शब्दों द्वारा कहा है। यहां पर 'पूर्व' का अर्थ 'निमित्तकारण' है। कहा भी है-"पूर्व निमित्त कारणमित्यनान्तरम् ।" अर्थात् पूर्व, निमित्त और कारण ये एकार्थवाची हैं । पर्याय नामक मतिज्ञान के निमित्त से जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता उसको भी कार्य में कारण का उपचार करके पर्यायनामक श्रुतज्ञान कहते हैं । कहा भी है "एदम्हादो सुहुमणिगोवलद्धिअक्खरादो जमुप्पज्जइ सुदणाणं तं पि पज्जाओ उच्चदि, कज्जे कारणोवयारावो।" ध० पु०६ पृ० २२ । इस सूक्ष्म-निगोदलब्धि-अक्षर मतिज्ञान से जो श्रुतज्ञान होता है, वह भी कार्य में कारण के उपचार से पर्यायश्रुतज्ञान कहलाता है । -जे. ग. 28-3-74/...... / ज. ला. गैन, भीण्डर द्रव्यश्रुत का प्रमाण शंका-द्रव्य त का प्रमाण क्या और कितना है ? समाधान-द्रव्यश्रुत का प्रमाण १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ अक्षरप्रमाण है । कहा भी है एयष्ट्र च च य छ सत्तयं च च य सुग्ण सत्त तिय सत्तं । सुण्णं णव पण पंच य एगं छक्केक्कगो य पण्णं च ॥३५२॥ -गो. जी. धवल पु० १३ पृ० २५४ अर्थ-एक, आठ, चार, चार, छह, सात, चार, चार, शून्य, सात, तीन, सात, शून्य, नौ, पाँच, पाँच, एक, छह, एक और पाँच । -जं. ग. 19-10-67/VIII/ क. दे. गया (१) जघन्य लब्ध्यक्षरज्ञान में अनन्त अविभागप्रतिच्छेदों का प्रागम प्रमाण (२) अगुरुलघुगुण के अविभागप्रतिच्छेदों से ज्ञानाविभाग प्रतिच्छेद अधिक होते हैं शंका-लब्ध्यक्षरज्ञान सबसे जघन्यज्ञान है, उसमें अनन्त अविभागप्रतिच्छेद कैसे ? समाधान परिकर्म' ग्रन्थ में लब्ध्यक्षरज्ञान के अनन्त अविभागप्रतिच्छेद कहे हैं जो निम्न प्रकार है"मजीवरासी वग्गिज्जमाणा वग्गिज्जमाणा अणंतलोगमेत्तवग्गणद्राणाणि उवरि गंतण सव्वपोग्गलवव्यं पावदि। पणो सम्वपोग्गलदव्वं वग्गिज्जमाणं वग्गिज्जमाणं अणंतलोगमेत्तवग्गणट्राणाणि उवरि गंतृण सव्वकालं पावदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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