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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ २७५ "रूपमस्पृष्टमेव च गृह्णाति । च शब्दान्मनश्च । गंधं रसं स्पर्श च बद्ध स्वकस्वकेन्द्रियेषु नियमितं पुट्ठ स्पृष्टं चशब्दादस्पृष्टं च शेषेन्द्रियाणि गृह्णन्ति । पुट्ट सुरणेइ सद्दे इत्यत्रपि बद्ध च शब्दौ योज्यौ, अन्यथा दुर्व्याख्यानतापत्तेः॥ (धवल पु० ९ पृ० १६० ) ___ अर्थ-चक्षुरूप को अस्पृष्ट ही ग्रहण करती है । च शब्द से मन भी अस्पृष्ट ही वस्तु को ग्रहण करता है । शेष इन्द्रियाँ गंध, रस और स्पर्श को बद्ध अर्थात् अपनी-अपनी इन्द्रियों में नियमित व स्पृष्ट ग्रहण करती हैं, च शब्द से अस्पृष्ट भी ग्रहण करती हैं । 'स्पृष्ट शब्द को सुनता है' यहाँ भी बद्ध और च शब्दों को जोड़ना चाहिये, क्योंकि ऐसा न करने से दूषित व्याख्यान की आपत्ति आती है। "न श्रोत्रादीन्द्रियचतुष्टये अर्थावग्रहः तत्र प्राप्तस्यैवार्थस्य ग्रहणोपलंभादिति चेन्न, वनस्पतिष्वप्राप्तार्थ ग्रहण स्योपलंभात् । तदपि कुतोऽवगम्यते ? दूरस्थनिधिमुद्दिश्य प्रारोहमुक्त्यन्यथानुपपत्तेः।" ( धवल पु० ९ पृ० १५७ ) अर्थ-शंकाकार कहता है कि श्रोत्रादि चारइन्द्रियों में अर्थावग्रह नहीं है, क्योंकि उनमें प्राप्त ही पदार्थ का ग्रहण पाया जाता है। आचार्य उत्तर देते हैं कि ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि वनस्पतियों में अप्राप्त अर्थ का ग्रहण पाया जाता है तथा दूरस्थ निधि ( जलादि ) को लक्ष्य कर प्रारोह ( शाखा ) का छोड़ना अन्यथा बन नहीं सकता, इससे भी जाना जाता है कि श्रोत्रादि चार इन्द्रियों में अर्थावग्रह पाया जाता है अर्थात वे इन्द्रियाँ अप्राप्त अर्थ का भी ग्रहण करती हैं। -जें. ग. 23-7-70/VII/ रो. ला. मि. एकेन्द्रिय के मतिज्ञान शंका-आपने लिखा है कि एकेन्द्रियजीव को स्पर्शनइन्द्रियसम्बन्धी मतिज्ञानावरण के सर्वघातीस्पद्धकों का वर्तमान में उदयाभावी क्षय और शेष चारइन्द्रियसम्बन्धी मतिज्ञानावरण कर्म के सर्वघातीस्पद्धकों के उदय के कारण एकेन्द्रिय जीव के रसना आदि इन्द्रियसम्बन्धी मतिज्ञानावरण के उदय से जीवका ज्ञान क्रमवर्ती होता है। यहाँ प्रश्न है कि-जिसप्रकार क्षयोपशमसम्यग्दर्शन में सर्वघातीमिथ्यात्व तथा मिश्रप्रकृतियों का उदयाभावीक्षय और उसका सत्ता में रहना सो उपशम तथा सम्यक्त्वप्रकृति के उदय में जो जीव की अवस्था होती है उसीको क्षयोपशमसम्यग्दर्शन कहते हैं उसी प्रकार एकेन्द्रियजीव को रसना आवि चारइन्द्रियसम्बन्धी मतिज्ञानावरणकर्म का उदय होना चाहिए या उदयाभावीक्षय होना चाहिए। आपने उदय लिखा है और प्रकृति का सत्ता में रहना सो उपशम तथा स्पर्शनइन्द्रियसम्बन्धी मतिज्ञानावरणकर्मका उदय होना चाहिये । आप उसीका अर्थात् स्पर्शनइन्द्रियसम्बन्धी मतिज्ञानावरणकर्म का उदयाभावीक्षय लिखते हैं तो यथार्थ में क्या होना चाहिए? समाधान -- एकेन्द्रियजीव के स्पर्शन इन्द्रियसम्बन्धी मतिज्ञानावरण के सर्वघातीस्पद्धकों के उदयक्षय से उन्हीं सर्वघाती के सत्त्वोपशम से और देशघातीस्पर्द्धकों के उदय से और जिह्वा, घ्राण, चक्षु व श्रोत्रइन्द्रियावरण के सर्वघातीस्पर्द्धकों के उदय से और इन चार इन्द्रियों के आवरण करने वाले देशघातीस्पद्धकों के उदयक्षय से तथा सत्त्वोपशम से, क्षयोपशममतिज्ञान होता है । विशेष के लिए देखो ष० खं० ७/६४ । क्षयोपशमसम्यक्त्व के विषय में १० खं० १/१७२ तथा पत्र १६८-१७० तक देखने चाहिए। -जं. सं.7-6-56/VI/ क. दे. गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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