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________________ [ २४७ व्यक्तित्व और कृतित्व ] योग मार्गरणा १. योग का स्वरूप (लक्षण) २. स्थित जीव प्रदेशों में भी योग ३. योग प्रौदयिक भाव है ४. किसी भी प्राचार्य ने योग को क्षायिक नहीं कहा शंका-योग किसे कहते हैं ? वह कौनसा भाव है । समाधान-श्री नेमीचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती ने योग का लक्षण निम्न प्रकार कहा है । पुग्गलविवाइदेहोदयेण, मणवयणकायजुत्तस्स । जीवस्स जा हु सत्ती, कम्मागमकारणं जोगो ॥ २१६ गो. जो. ॥ अर्थ-पूगलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन, काय से युक्त जीव की जो कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है वह योग है। कायवामनः कर्म योगः । मोक्षशास्त्र । अर्थ-काय, वचन और मन की क्रिया को योग कहते हैं। "वामनःकायवर्गणानिमित्तः आत्मप्रदेशपरिस्पन्दो योगो भवति ।" धवल ११० २९९ । अर्थ-वचनवर्गणा, मनोवर्गणा और कायवर्गणा के निमित्त से जो आत्मप्रदेशों का परिस्पन्द होता है उसे . योग कहते हैं। "कर्मजनितस्य चैतन्यपरिस्पन्दस्यासवहेतुत्वेन विवक्षितत्वात् ।" धवल १ पृ० ३१६ । .... अर्थ-कर्मजनित प्रात्मप्रदेशपरिस्पन्द ही आस्रबका कारण है। योग में यह अर्थ विवक्षित है। योग का लक्षण तीन प्रकार कहा गया है। १. शरीरनामकर्म के उदय से जीव की जो कर्मों को ग्रहण करने में कारणभूतशक्ति, यह योग है। २. मन, वचन, काय की क्रिया योग है। ३. आत्मप्रदेशों का परिस्पन्द वह योग है। इन तीन लक्षणों में प्रथम लक्षण के अनुसार योग प्रात्मा के समस्त प्रदेशों में होता है, यह सिद्ध होता है। कार्य में कारणका उपचार करके दूसरा और तीसरा लक्षण कहा गया है। श्री वीरसेन आचार्य ने कहा भी है-"मन, वचन एवं कायसम्बन्धी क्रिया की उत्पत्ति में जो जीव का उपयोग ( प्रयत्न ) होता है वह योग है। और वह कर्मबन्ध ( कर्म प्रास्रव ) का कारण है। परन्तु वह थोड़े से जीव-प्रदेशों में नहीं हो सकता, क्योंकि एक जीव में प्रवृत्त हुए उक्त योग की थोड़े से ही अवयवों में प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है, अथवा एक जीव में उसके खण्ड-खण्डरूप से प्रवृत्त होने से विरोध आता है। इसलिये स्थित ( परिस्पन्द रहित, अचल ) जीब प्रदेशों में भी कर्मबन्ध होता है, यह जाना जाता है। दूसरे योग से जीवप्रदेशों में नियम से परिस्पन्द होता है, ऐसा नहीं है। क्योंकि योग से अनियम से उसकी उत्पत्ति होती है । तथा एकांततः नियम नहीं है, ऐसी भी बात नहीं है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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