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________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : "पर्याप्तिप्राणानां नाम्नि विप्रतिपत्तिर्न वस्तुनि इति चेन्न, कार्यकारणयोर्भेदात्, पर्याप्तिष्वायुषोऽसत्वान्मनो. बागुश्वास-प्राणानामपर्याप्तकालेऽसत्त्वाच्चतयोर्भेदात् । धवल पु० १ पृ० २५७ । (४) विग्रहगति में अर्याप्त नाम कर्म का उदय रहने से लब्ध्यपर्याप्तक कहने में कोई विरोध नहीं है। कहा भी है "तिरिक्खगदी-एइंदियजादितेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास तिरिक्खगदिपाओ-गाणुपुष्वी अगुरुलहुअ-थावर बादर सुहुमाणमेक्कदरं पज्जत्तापज्जत्ताणमेक्कवरं थिराधिरं सुभासुमं दुब्भगं अणादेज्जं जसअजसकित्ती णमेक्कदरं णिमिणमिदि एदासि एक्कवीसपयडीणं उदओ विगहगदिए वट्टमाणस्स एइंदियस्स होदि।" धवल पु०७पृ० ३६ । यहाँ यह बतलाया गया है कि एकेन्द्रिय जीवों के विग्रह गति में पर्याप्त या अपर्याप्त इन दोनों में से किसी एक नाम कर्म का उदय रहता है। विग्रह गति में जिन एकेन्द्रिय निगोद जीवों के अपर्याप्त नाम कर्म का उदय होता है वे विग्रह गति में भी लब्ध्यपर्याप्तक निगोद एकेन्द्रिय जीव कहलाते हैं। (५) लब्ध्यपर्याप्त निगोद जीव के विग्रहगति में कार्मणकाययोग होता है । द्वादशांग में कहा भी है "कम्मइयकायजोगो विरगहगइ-समावण्णाणं केवलीणं वा समुदघादगदाणं ॥६०॥छक्खंडागम संतपरूवणा। विग्रहगति को प्राप्त चारों गतियों के जीवों के कार्मण-काय योग होता है। -जं. ग. 13-5-76/VI/र. ला. जैन, मेरठ मनुष्य शरीर पृथ्वीकाय नहीं, मनुष्यकाय है शंका-त० सू० २।१३ की सर्वार्थसिद्धि टीका से समुत्पन्न शंका- क्या मनुष्य पृथ्वीकायिक पंचेन्द्रिय है ? जिससे कि मृतक मनुष्य शरीर को पृथ्वीकाय कहा गया है ? तथा ऐसा होने पर ३६ पृथ्वियों में से मनुष्य शरीर कौनसे नाम की पृथ्वी है, यह बात भी निर्णय हो जाती है ? समाधान-पृथ्वीकायिक तो स्थावर एकेन्द्रिय जीव होता है। मनुष्य तो पंचेन्द्रिय है, अतः वह पृथ्वीकायिक नहीं हो सकता। वह तो त्रस है। मृतक मनुष्य-शरीर को पृथ्वीकाय नहीं कहा गया है और न वह मात्र पश्वीकाय है: उसमें जल, वायु अग्नि आदि भी हैं। स० सि० २।१३ में वह स्थल ऐसा है-"पथिवीकायिकजीवपरित्यक्तः पृथिवीकायो मृतमनुष्यादिकायवत् ।" इन शब्दों से शंकाकार को भ्रम हो गया है। इन शब्दों द्वारा तो यह बताया गया है कि जैसे मरे हुए मनुष्य का शरीर मनुष्यकाय कहलाता है उसी प्रकार पृथ्वीकायिक जीव के द्वारा जो शरीर छोड़ा गया वह पृथ्वीकाय कहलाता है । मर जाने पर मनुष्य जीव के द्वारा छोड़ा हुआ शरीर मनुष्यकाय कहलाता है, पृथ्वीकाय नहीं कहा जा सकता; क्योंकि मनुष्य शरीर पृथ्वीकायिक जीव के द्वारा नहीं छोड़ा गया है। -पताघार 77-78/ ज. ला. गैन, भीण्डर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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