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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] जिस कर्म के उदय से जीव सूक्ष्मता को प्राप्त होता है, उस कर्म की सूक्ष्म संज्ञा है । "अोहि पोग्गलेहि अपडिहा ममाणसरीरो जोवो सुमो त्ति घेत्तव्वं ।" ध. पु. ३ पृ. ३३१ । जिसका शरीर अन्य पुद्गलों से प्रतिघात रहित है वह सूक्ष्म जीव है । " य तेसि जेसि पडिखलणं पुढवी तोएहि अग्गिवाहि । ते जाण सुहुम काया इथरा थूलकाया य ॥। १२७ ।। स्वा का. अ. । जिन जीवों का शरीर पृथ्वी से, जल से, आग से और वायु से प्रतिघात नहीं होता, उनको सूक्ष्मकायिक जानो । " आधारानपेक्षितशरीराः जीवा सूक्ष्मा भवन्ति । जलस्थलरूपाधारेण तेषां शरीरगतिप्रतिघातो नास्ति ।" आधार की अपेक्षा रहित जिनका शरीर है वे सूक्ष्म जीव हैं। जिनकी गति का जल स्थल आधारों के द्वारा प्रतिघात नहीं होता है, वे जीव सूक्ष्म हैं । अतः सूक्ष्म अग्निकायिक जीव अग्नि रूप होते हुए भी किसी को बाधा नहीं पहुँचाते हैं । [ २३५ - जै. ग. 4-5-78 / VI / र. ला. जैन, मेरठ सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों व अग्निकायिकों का श्रवस्थान एवं स्वरूप शंका -- सूक्ष्म पृथ्वीकायिक व सूक्ष्म अग्निकायिक जीव कहाँ किस प्रकार रहते हैं ? क्या सूक्ष्म अग्निकायिक जीव अग्नि रूप नहीं होते ? समाधान - सूक्ष्म पृथ्वी कायिक व सूक्ष्म अग्निकायिक जीव सर्व लोक में रहते हैं । धवल ग्रन्थ में कहा भी है " कायावादेण पुढविकाइय आउकाइय तेउकाइय वाउकाइय सुहुमपुढवि काइय, सुहुम आउकाइय, सुहुम ते काइय, सुहुमवाउकाइय तस्सेव पज्जता अपज्जत्ता सत्थाणे समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ॥ ३२ ॥ सव्वलोगे ॥ ३३ ॥ "सुम पुढविकाइया सुहुमआउकाइया, सुहम तेउकाइया, सुहुम वाउकाइया तस्सेव पज्जत्ता अपज्जला य hafs खेते ? सव्वलोगे ।। २२ ।। " धवल पु. ४ पृ. २८७ । द्वादशाङ्ग के इन सूत्रों द्वारा यह बतलाया गया है कि सूक्ष्म पृथ्वीकायिक व सूक्ष्म अग्निकायिक जीव सर्व लोक में रहते हैं । ये जीव सूक्ष्म हैं और सर्वलोक में रहते हैं, इससे जाना जाता है कि वे निराधार रहते हैं । सूक्ष्म अग्निकायिक जीव अग्नि रूप होते हैं, किन्तु सूक्ष्म होने के कारण वे दूसरे जीवों को बाधा नहीं पहुँचाते । Jain Education International "यस्योदय वन्यजीवानुग्रहोपघातायोग्य सूक्ष्म शरीर निर्वृत्ति भवति तत्सूक्ष्मं नाम ।" सुखबोधाख्यवृत्ति । - जै. ग. 16-3-78 / VIII / र. ला. जैन, मेरठ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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