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________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : समाधान - खान से निकलने के पश्चात् पत्थर में जीव रह भी सकता है और नहीं भी । पत्थर जो हमको गोचर होता है उसमें असंख्याते जीव हैं। क्योंकि पृथिवी निर्वृत्तिपर्याप्तक जीव की उत्कृष्ट श्रवगाहना भी घनांगुल के असंख्यातवेंभाग प्रमाण है जैसा कि गोम्मटसार जीवकांड गाथा ९६ से १३२ तक तथा धवल पुस्तक ११ पृ० ५६ से ७३ तक के कथन से स्पष्ट है । खान में रहते हुए भी पृथिवीकायजीव की श्रवगाहना नहीं बढ़ती, किन्तु पत्थर के सम्बन्ध से अन्य पुद्गल पत्थर रूप परिणम जाता है और उसमें पृथिवी जीव उत्पन्न हो जाता है। खान से बाहर निकलने के पश्चात् पत्थर के साथ उस प्रकार के पुद्गल का सम्बन्ध नहीं होता जो पत्थर रूप परिणम जावे; अत: पत्थर नहीं बढ़ता। जीव के कारण पत्थर नहीं बढ़ता। बाह्य वायुमंडल में जो रजोकण तथा जलकण मिश्रित हैं वे ही उसके प्रहार का साधन हैं । अथवा आहार वर्गरणा सर्वत्र है, जिनको वह पृथिवीकायजीव ग्रहण करता रहता है । कितना भी छोटे से छोटा पत्थर हो जो भी पत्थर हमको दृष्टिगोचर होता है उसमें एक जीव नहीं है, किन्तु असंख्यात जीव हैं । उस पत्थर के बढ़ने पर उसमें नवीन जीवों की उत्पत्ति होने से जीवों की संख्या भी बढ़ जाती है । पूर्व जीव की अवगाहना नहीं बढ़ती । २३४ ] शंका- 'वृहद् द्रव्य संग्रह' पृ० नामकर्म के उदय से स्पर्शन इंद्रिय सहित में क्या भेद है ? - जै. ग. 16-5-63 / 1X / प्रो. म. ला. जे. स्थावर व एकेन्द्रिय में भेद २८ पर ऐसा लिखा है- "स्थावर नाम कर्म के उदय से स्थावर, एकेन्द्रिय एकेन्द्रिय होते हैं ।" यह बात समझ में नहीं आई कि स्थावर व एकेन्द्रिय समाधान — एकेन्द्रिय नामकर्म में इंद्र की मुख्यता रखता है । जिस जीव के स्थावर नामकर्म काय की मुख्यता रखता है; धारण करेगा, यह स्थावर नामकर्म का काम है । जिस कर्म के उदय एकेन्द्रिय भाव से सदृशता होती है वह एकेन्द्रिय जाति नामकर्म है । ष० खं ६ / ६७ । से पृथ्वी, अप्, तेज, वायु व वनस्पति भेद नहीं है । एकेन्द्रिय नामकर्म केवल एक स्पर्शन इंद्रिय होगी वह एकेन्द्रिय जीव कहलायेगा किन्तु एकेन्द्रिय होते हुए भी वह जीव पृथ्वी आदि में से किस काय को एकेन्द्रिय जीवों की एकेन्द्रिय जीवों के साथ - जै. सं. 17-5-56/VI / मू. घ. मुजफ्फरनगर १. सभी सूक्ष्म जीव सर्वत्र रहते हैं । २. अग्निकायिक जीव श्रग्निरूप हैं शंका- सूक्ष्म पृथ्वीकायिक या अग्निकायिक आदि कहाँ किस प्रकार रहते हैं ? क्या सूक्ष्म अग्निकायिक अग्निरूप नहीं हैं ? समाधान - सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अग्निकायिक आदि सूक्ष्म जीव सर्व लोक में रहते हैं । कहा भी है"हुम पुढविकाइय सुहुम आउकाइय सुहुमतेउकाइय सुहुमवाउकाइय, तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता सत्यारोण समुग्धा देण उववादेण केवडिखेत्ते ? सव्वलोगे ॥" धवल पु० ७ । Jain Education International सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म तैजसकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीव स्वस्थान समुद्घात और उपपाद पद से कितने क्षेत्र में रहते हैं ? उक्त जीव सर्वलोक में रहते हैं । सूक्ष्म का लक्षण इस प्रकार है- "जस्स कम्मस्स उदएण जीवो सुहुमत्तं पडिवज्जदि तस्स कम्मरस सुममिदि सण्णा ।" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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