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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ २२७ २६१६०० को प्रावली के असंख्यातवें भाग से भाग देने पर २६१६००:६-३२४०० । २६१६००३२४०० =२५९२०० को प्रथम समान खण्ड में जोड़ने पर ५८३२००+२५६२००=८४२४०० द्वीन्द्रिय जीवों का प्रमाण ॥ ३२४००:६-३६००; ३२४००-३६००=२८८००; इसको दूसरे समान खंड में जोड़ने पर ५८३२००+२८८००-६१२००० तीन-इंद्रिय जीवों का प्रमाण॥ ३६००:९-४००३६००-४००=३२००७ इसको तीसरे समान खंड में जोड़ने पर ५८३२००+३२००५८६४०० चार-इन्द्रिय जीवों का प्रमाण ।। ५८३२००+४००-५८३६०० पंचेन्द्रिय जीवों का प्रमाण ॥ -जे. ग. 7-12-67/VII/र. ला. जैन, मेरठ द्वीन्द्रियादि का अल्पबहुत्व शंका -पर्याप्त विकलत्रय तथा पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में अल्पबहुत्व किस प्रकार है ? समाधान-चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक जीव अल्प हैं, उनसे पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव विशेष अधिक हैं। इनसे द्वीन्द्रिय पर्याप्तक जीव विशेष अधिक हैं, इन तीन्द्रिय पर्याप्तकों से त्रीन्द्रिय पर्याप्तक जीव विशेष अधिक हैं। श्री धवल पु० ३ पृ० ३२७ पर कहा भी है-- "त्रीन्द्रिय पर्याप्तकों के अवहार काल मे द्वीन्द्रिय पर्याप्तकों का अवहारकाल विशेष अधिक है। द्वीन्द्रिय पर्याप्तकों के अवहारकाल से पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों का अवहारकाल विशेष अधिक है। पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों के अवहारकाल से चतुरिन्द्रियपर्याप्तकों का अवहारकाल विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकों की विष्कंभ सूची से पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों की विष्कंभ सूची विशेष अधिक है। पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों की विष्कंभ सूची से द्वीन्द्रिय पर्याप्तकों की विष्कंभ सूची विशेष अधिक है। द्वीन्द्रिय पर्याप्तकों की विष्कंभ सूची से श्रीन्द्रिय पर्याप्तकों की विष्कंभ सूची विशेष अधिक है।" यहाँ पर अवहारकाल से प्रयोजन भागाहार अथवा भाजक से है। ज्यों-ज्यों भागाहार अधिक होता जायगा त्यों-त्यों द्रव्य प्रमाण कम होता जायगा। इसलिये इस आगम प्रमाण से उपर्युक्त अल्प बहत्व फलितार्थ होता है। श्री स्वामी कातिकेय ने लोकानुप्रेक्षा में कहा भी है चउरक्खा पंचक्खा वेयक्खा तह य जाण तेयक्खा। एदे पजतिजुदा अहिया अहिया कमेणेव ॥ १५५ ॥ अर्थ-चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकों से पंचेन्द्रिय पर्याप्तक अधिक हैं। पचेन्द्रिय पर्याप्तकों से द्वीन्द्रिय पर्याप्तक अधिक हैं । द्वीन्द्रिय पर्याप्तकों से त्रीन्द्रिय पर्याप्तक अधिक हैं। -जं. ग. 14-12-67/VIII/ र. ला. गेन, मेरठ बादर व सूक्ष्म जीवों में भेद शंका--स्थावर जीव बादर और सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार से कहे हैं । सूक्ष्म जीवों की अवगाहना बादर जीवों से अधिक होती है, किन्तु बादर जीवों का तो घात होता है, सूक्ष्म जीवों का घात नहीं होता; ऐसा क्यों ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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