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________________ २२६ ] पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : स्पर्शन क्षेत्र सर्वलोक है ( महाबंध पु० ३ पृ० २२५ ) । महाबंध पु० २ पृ० १०५ पर 'ओरालिय मि० अट्ठाष्ण' के स्थान पर 'ओरालिय मि० सत्ताण्णं' होना चाहिये । - जै. ग. 17-1-63 / / ब्र. प. ला. विकलत्रय का क्षेत्र शंका- अढ़ाई द्वीप से भिन्न द्वीप समुद्रों में विकलत्रय होते हैं या नहीं ? समाधान - विकलत्रय जीव अढ़ाई द्वीप में तथा स्वयंप्रभ पर्वत से परे भाग में अर्थात् स्वयम्भूरमण द्वीप तथा स्वयम्भूरमण समुद्र में पाये जाते हैं । किन्तु वैरी जीवों के सम्बन्ध से विकलेन्द्रिय जीव सर्वत्र तिर्यक् प्रतर के भीतर होते हैं। देखो धवल पु० ४ पृ० २४३ तथा धवल पु० ७ पृ० ३९५-९६ । - जै. ग. 4-1-68 / VII / ना. कु. ब. स्वर्ग, नरक में विकलत्रय नहीं हैं शंका - विकलत्रय तथा स्थावर जीव नरक या स्वर्ग में हैं या नहीं ? समाधान — विकलत्रय जीव तिर्यग्लोक में पाये जाते हैं, स्वर्ग व नर्क में नहीं होते । सूक्ष्म स्थावर जीव लोक में सर्वत्र पाये जाते हैं। श्री बोरनन्दि सिद्धांतचक्रवर्ती आचार्य ने आचारसार अध्याय ११ श्लोक १६७ में कहा भी है आधारे बादराः सूक्ष्माः सर्वत्र त्रसनालिगाः । सास्तु विकलाक्षाः स्युस्तिर्यग्लोके व्यवस्थिताः ॥१६७॥ अर्थ- बादर जीव किसी के आधार से रहते हैं । सूक्ष्म समस्त लोक में भरे हुए हैं। त्रस जीव त्रस नाली में रहते हैं । विकलत्रय तिर्यग्लोक में रहते हैं । - जै. ग. 4-1-68 / VII / शा. कु. ब. द्वीन्द्रियादि जीवों का भागाभाग शंका- धवल पु० ३ पृ० ३२१ पर द्वीन्द्रिय, तीन-इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रिय जीवों का कथन है, इन चारों में किसकी संख्या अधिक और किसकी संख्या अल्प है समझ में नहीं आया ? भागाभाग भी समझ में नहीं आया ? समाधान - धवल पु० ३ ० ३१९ पर भागाभाग का कथन है। उससे ज्ञात होता है कि पंचेन्द्रिय जीव स्तोक हैं, चतुरिन्द्रियजीव विशेष अधिक हैं, त्रीन्द्रिय जीव विशेष अधिक हैं, और द्वीन्द्रिय जीव विशेष अधिक हैं । अङ्क संदृष्टि से समझ में आ सकता है जो इस प्रकार है मानलो त्रस मिथ्यादृष्टि जीवों का प्रमाण २६२४४०० है और श्रावली का असंख्यातवाँ भाग ९ है । स मिथ्यादृष्टि जीव को आवली के असंख्यातवें भाग से भाग देने पर २६२४४०० ÷ε=२ε१६०० ।। इसको त्रस राशि में घटाने पर २६२४४०० - २९१६०० = २३३२८०० शेष रहते हैं। इसके चार समान खण्ड करने पर ५८३२००, ५८३२००, ५८३२००, ५८३२०० प्राते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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