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________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : समाधान - मोक्ष मार्गप्रकाशक में जो नारकियों के माटी का आहार लिखा है वह गोम्मटसार कर्मकांड गाथा ७८ की टीका के आधार पर लिखा है । टीका इस प्रकार है "नारकायुषोऽनिष्टाहारः तद्विषमृतिका नोकर्म द्रव्यकर्म ।" नरक की विषरूप माटी का अनिष्ट आहार नरक आयु का नोकर्म है । यदि मोक्षमार्ग प्रकाशक में यह प्रमाण टिप्पण में उद्धृत कर दिया जाता तो स्वाध्याय प्रेमियों को यह शंका उत्पन्न न होती । २०८ ] - जै. ग. 24-4-69/V/र. ला. जैन, मेरठ सम्यक्त्वाभिमुख नारकी के निद्रोदय शंका - लब्धिसार पृष्ठ ६४, गाथा २८ पर लिखा है- प्रथम सम्यक्त्व सम्मुख जीव के नरकगति विधे दर्शनावरण की निद्रादि पाँच बिना च्यार का उदय है तो बारहवें गुणस्थान में निद्रा का उदय क्यों ? समाधान - प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अभिमुख जीव के नरकगति में प्रचला व निद्रा में से किसी एक का उदय भी सम्भव है जैसा लब्धिसार की गाथा २८ के इन शब्दों से स्पष्ट है - 'णिद्दा पयलाणमेक्कदरगंतु ।' निद्रा और प्रचला ध्रुव उदय प्रकृति नहीं है । अत: इनका उदय और अनुदय दोनों सम्भव हैं । लब्धिसार बड़ी टीका के पृ० ६५ के अन्त में तथा ६६ के प्रारम्भ में गाथा २८ की टीका में प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अभिमुख नारकी के निद्रा या प्रचला में से किसी एक का उदय कहा है । -. सं. 5-2-59 / V / मां. सु. शंवका, ब्यावर नरक में अग्नि, खून, माँस, धातु की पुतली आदि का प्रादुर्भाव कैसे होता है ? पड़ी ? वहाँ खून मांस कहाँ से आया? उनका शरीर कैसा होता है खिलाया जाता है ? वहाँ गर्म धातु की पुतलियाँ कहाँ से आती हैं ? वहाँ की वंतरणी नदी क्या है ? शंका- नरकों में खाना बनाने आदि की आवश्यकता नहीं तो वहाँ आग आदि को क्या आवश्यकता जो उनका हो मांस काट-काट कर उनको धातु को किस प्रकार गर्म किया जाता है ? Jain Education International समाधान-नरकों में यद्यपि खाना बनाने आदि की आवश्यकता नहीं, किन्तु नरक में पंच स्थावरकाय हैं अतः अग्नि भी है । अग्नि के निमित्त से भी नारकियों को दुःख होता है । नरकों में यद्यपि द्वीन्द्रियादि तियंच व उत्पत्ति हो सके, किन्तु वहाँ पर वैक्रियिकशरीर ही है मनुष्य नहीं हैं जिनके औदारिक शरीर से खून, मांस आदि की अशुभ विक्रिया के कारण खून, माँस आदि रूप परिणम जाता जो नारकियों के मुँह में दिया जाता है। धातु पृथिवीकाय है अतः धातु की पुतलियाँ होने में कोई बाधा नहीं । अग्नि भी है। धातु अग्नि के निमित्त से गर्म हो जाती है । अतः नरक में गर्म धातु की पुतलियाँ होने में कोई आपत्ति नहीं है । वैतरणी नदी अनेक तरंगों से उछलती है, इसमें अगाध पानी से अनेक सरोवर भरे हुए रहते हैं । विषय का सेवन जैसे तृष्णा को बढ़ाता है वैसे ही यह दुखदायक नदी प्यास को बढ़ाती है। संसार से निकलना जैसे कठिन है वैसे वैतरणी नदी में प्रवेश करने पर उसमें से बाहर निकलना नितांत कठिन है । यह नदी आशा के समान विशाल है। कर्म के पुद्गल जैसे अनेक तरह की आपत्तियों को उत्पन्न करते हैं वैसे यह नदी भी नारकियों को अनेक प्रकार के दुःख देती है । इस नदी का दर्शन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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