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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] आहार । मग्गणगुणठारोह य चउदसहि हवंति तह असुद्धणया । विष्णेया संसारी सच्वे सुद्धा हु सुद्धणया ||१३|| अर्थ -- संसारी जीव अशुद्धनयकी दृष्टिसे चौदह मार्गणा तथा चौदह गुणस्थानों के भेद से चौदह - चौदह प्रकार के होते हैं और शुद्धनय से सभी शुद्ध हैं । मार्गणाएँ चौदह प्रकार की होती हैं, जिनके नाम निम्न प्रकार हैं गइ इंदियेसु काय जोगे वेदे कषायणाले य । सयम दंसण लेस्सा भविया समत्त सणि आहारे || अर्थ - गति, इन्द्रिय, काय, [ २०७ योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी, इन चौदह मार्गणात्रों में से प्रत्येक मार्गणा के द्वारा संसारी जीवों का विभाजन हो सकता है । जैसे कुछ जीव नारकी हैं, कुछ तिर्यंच हैं, कुछ मनुष्य हैं, कुछ देव हैं। इस प्रकार गतिमार्गणा के द्वारा संसारी जीवों का विभाजन होता है । इसी प्रकार अन्य तेरह मार्गणाओं द्वारा संसारी जीवों का विभाजन होता है । - जै. ग. 25-3-71 / VII / र. ला. जैन, मेरठ गति मार्गरणा नरक में नारकी को असुरकुमार भी पीड़ा देते हैं शंका- नारकियों को असुरकुमार आप पीड़ा दे हैं या परस्पर लड़ावें हैं ? आप पीड़ा दे हैं यह कैसे सम्भव है ? Jain Education International समाधान- "तेऽसुरकुमारास्तानुवज्रशृखलाबद्धदुर्विमोच महाशिलाकूट कंध रास्तस्यामेव पातयन्ति । तत्र च तेषां कृतनिमज्जनोन्मज्जनानां शिरांसि असुरनिर्मित महामकरकरप्रहारेण जर्जरीभूय निपतन्ति ।" मूलाराधना पृ० १४ / ३४ । भर्थ - असुरकुमार वज्रकी श्रृंखला से बँधे हुए बड़े-बड़े पत्थर उनके गले में बांधकर पुनः वैतरणी में उनको ढकेल देते हैं | पड़ने पर वे उस नदी में डूबकर पुनः ऊपर आते हैं और पुनः डूब जाते हैं । असुरों के द्वारा उत्पन्न किये गये मगर नामक प्राणियों के हाथ के आघात होने से उनका मस्तक फूट जाता है और वे पुनः नदी में डूब जाते हैं । इन आगम प्रमाण से सिद्ध होता है कि असुरकुमार स्वयं भी नारकियों को पीड़ा देते हैं । - जै. ग. 24-4-69 / V / र. ला. जैन, मेरठ नरका का नोकर्म श्राहार शंका- मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ० ९५ पर नारकियों को वहाँ की माटी का भोजन मिलता है । सो कैसे सम्भव है ? नारकियों के कर्म आहार लिखा है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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