SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६ ] अति प्रसंग हो जाय । इस से यह कहना ठीक है कि आत्मा व्यवहार नय से पर द्रव्यों को देखता जानता परन्तु निश्चय से तो अपने ही धात्मद्रव्य को देखता जानता है।" शंका- केवलज्ञानी पर पदार्थों को प्रत्यक्ष जानते हैं यह कथन तो वास्तविक है फिर पूर्व शंका के समाधान में ऐसा क्यों कहा कि केवलज्ञानी पर पदार्थों को जानते हैं। यह उपचार से अर्थात् आरोपित कथन है ? [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : समाधान- 'उपचार' का अर्थ 'आरोप' नहीं है। प्राचीन आचार्य रचित ग्रन्थों में 'उपचार' शब्द का प्रयोग 'मिथ्या कल्पना' के लिये नहीं मिलेगा 'मिथ्या कल्पना' के लिये प्रायः 'आरोप' शब्द का प्रयोग किया जाता है। दो भिन्न पदार्थों में परस्पर सम्बन्ध प्रगट करने के निमित्त से अथवा प्रयोजन से उपचारित कथन किया जाता है (आलाप पद्धति ) । जैसे तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ६ सूत्र २ में योग को आस्रव कहा, किन्तु योग तो कर्मों के आव के लिए कारण है और कर्मों का आना आस्रव है । अतः कारण कार्य सम्बन्ध प्रगट करने के प्रयोजन उपचार से 'योग प्रस्रव है' ऐसा कहा है ( राजवार्तिक अध्याय ६ सूत्र २ ) यह उपचरित कथन यथार्थ है क्योंकि यह योग और आस्रव में कारण कार्य सम्बन्ध को प्रगट करता है और वह सम्बन्ध यथार्थ है । इसीप्रकार प्राधार आय सम्बन्ध को प्रगट करने के लिये 'घी का घड़ा' आदि वाक्यों का प्रयोग उपचार से होता है इसी प्रकार 'ज्ञेय' और 'ज्ञायक' का परस्पर सम्बन्ध दिखाने के लिये उपचार से 'सर्वज्ञ' शब्द का प्रयोग होता है। यदि कोई इस औपचारिक कथन के प्रयोजन कार्य-कारण आधार आधेय ज्ञेय-ज्ञायक आदि वास्तविक सम्बन्धों को न ग्रहण कर, तादात्म्य सम्बन्ध को ग्रहण कर इस औपचारिक कथन में दूषण देने लगे, यह तो न समझने वाले का दोष है, कथन में तो कुछ दोष है नहीं । औपचारिक कथन का प्रयोजन तो दो द्रव्यों में यथार्थ सम्बन्ध प्रकट करने का है अतः जिसका प्रयोजन यथार्थ है वह कथन भी यथार्थ है। यदि दो द्रव्यों के परस्पर सम्बन्ध को सर्वथा अयथार्थं माना जावेगा तो 'सर्वज्ञता' 'दिव्य ध्वनि की प्रमाणता' 'समयसार आदि ग्रन्थों की प्रमाणता' इत्यादि सब को अयथार्थता का प्रसंग आजाने से मोक्षमार्ग का ही लोप हो जावेगा। क्योंकि शेय शायक सम्बन्ध न रहने से 'सर्वज्ञ' के प्रभाव का पौद्गलिक शब्द वर्गणामयी जड़ स्वरूप दिव्यध्वनि का केवलज्ञान से सम्बन्ध न रहने के कारण दिव्यध्वनि की अप्रमाणता का तथा श्री १०८ कुन्दकुन्द आचार्य 'समयसार' आदि ग्रन्थों के कर्त्ता न रहने से समयसार आदि ग्रन्थों की प्रमाणता के अभाव का प्रसंग अनिवार्य हो जाता । 'केवलज्ञानी पर पदार्थों को प्रत्यक्ष जानते हैं यह कथन औपचारिक होते हुए भी दो द्रव्यों के सम्बन्ध प्रगट करने की अपेक्षा से यथार्थ है। नाम है ? केवली के पांचों प्रकार की वर्गणाएँ श्राती हैं शंका-सयोग केवली कार्मण आदि कितने प्रकार की वर्गणा ग्रहण करते हैं और उनके क्या-क्या - जै. ग. 23-8-62 / V / डी. एल. शास्त्री समाधान-सयोग केवली भगवान के कषायाभाव होने के कारण ईर्यापथ-कर्म आस्रव होता है । ईर्यापथकर्म-आत्रव रूप कार्मण वर्गणा साता रूप होती है। कहा भी है Jain Education International "देव माणुसहितो बहूपरसुहुत्यायणत्तादो इरियाबहरूम्मं सादव्महिय धवल १३ पृ० ५१ । । । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy