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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १६५ रूप नहीं दीखती क्योंकि उस समय उस की दृष्टि में अन्य धर्म गौण हैं, अभाव रूप नहीं हैं। वस्तु के जानने का यह प्रकार है जैसा कि तत्वार्थसूत्र अध्याय पांच सूत्र ३२ "अपितानपित सिद्ध" की सर्वार्थसिद्धि टीका में कहा है। उन भिन्न २ दृष्टिकोणों को आगम में 'नय' कहा है । नय के द्वारा जो वस्तु का अध्यवसाय होता है वह वस्तु के एक अंश में प्रवृत्ति करता है । अनन्त पर्यात्मक वस्तु की किसी एक पर्याय का ज्ञान करते समय निर्दोष युक्ति की अपेक्षा से जो दोष रहित प्रयोग किया जाता है वह नय है। जयधवल पुस्तक १। अध्यात्म में इस नय के मुख्य दो भेद हैं-१ निश्चय नय २ व्यवहार नय । यद्यपि निश्चयनय और व्यवहार नय के आगम में अनेकों लक्षण कहे हैं तथापि प्रकृत विषय में 'स्व के आश्रित निश्चय नय, पर के आश्रित व्यवहार नय है' "आत्माश्रितो निश्चयनयः, पराश्रितो व्यवहार नयः" समयसार आत्म ख्याति टीका गाथा २७२ । यह लक्षण ग्रहण करना चाहिये । 'पराश्रित' अर्थात् 'पर' के साथ सम्बन्ध का द्योतक व्यवहार नय है । जब स्वाश्रित निश्चय नय है तो निश्चय नय की अपेक्षा ज्ञान प्रात्मा को अर्थात् अपने को ही जानता है, पर को नहीं जानता क्योंकि निश्चयनय का विषय पराश्रित नहीं है। यह कथन कपोल कल्पित नहीं है किन्तु श्री १०८ कुन्दकुन्द आचार्य ने इसको अनेकों स्थल पर कहा है-जैसे खड़िया मिट्टी ( पोतने का चूना या कलई ) पर की नहीं है कलई वह तो कलई है उसी प्रकार ज्ञायक पर का ( पर द्रव्य का) नहीं है, ज्ञायक वह तो ज्ञायक ही है ( गाथा ३५६ ) इस गाथा की आत्म ख्याति टीका में कहा है कि 'पुद्गलादि पर द्रव्य व्यवहार से उस चेतयिता आत्मा के ज्ञेय हैं।' गाथा ३६० में कहा कि यह निश्चय नय का कथन है अब उस सम्बन्ध में व्यवहार नय का कथन सुनो "जैसे सेटिका अपने स्वभाव से पर द्रव्य को सफेद करती है उसी प्रकार ज्ञाता भी अपने स्वभाव से पर द्रव्य को जानता है । ( गाथा ३६१ )।" इसी का समर्थन स्वयं श्री १०८ कुन्दकुन्द आचार्य ने नियमसार गाथा १५९ में इन शब्दों द्वारा किया है-"व्यवहार नय से केवली भगवान सब जानते और देखते हैं निश्चय से केवलज्ञानी आत्मा को जानते और देखते हैं।" श्री १०८ देवसेन आचार्य ने भी आलापपद्धति में कहा है कि उपचार से सिद्ध भगवान पर के ज्ञाता दृष्टा हैं। निश्चय नय और व्यवहार नय के लक्षण तथा आगम प्रमाण से यह सिद्ध हो जाता है कि केवली भगवान निश्चय नय से हैं प्रात्मा को जानते हैं व्यवहार नय से पर को जानते हैं और प्रमाण से स्व और पर दोनों को जानते हैं। जब कि निश्चयनय पराश्रित है ही नहीं तब निश्चय नय की अपेक्षा केवली पर को जानते हैं ऐसा आचार्य कैसे कथन कर देते । केवलज्ञानी का पर ज्ञेयों के साथ ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध है, किन्तु यह सम्बन्ध असद्भूत उपचरित व्यवहारनय की अपेक्षा से है क्योंकि सब ज्ञेय एक क्षेत्र अवगाही नहीं हैं । जिनकी दृष्टि में व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्थ है उनकी दृष्टि में केवली भगवान पर को जानते हैं यह भी असत्यार्थ हुआ; किन्तु जिन की दृष्टि में व्यवहारनय सत्य भी है अर्थात् स्याद्वादी है उनके लिये इस कथन से सर्वज्ञ का अभाव नहीं होता जैसा कि समयसार गाथा ३६५ की तात्पर्य वृत्ति संस्कृत टीका में कहा है "यहाँ शिष्य कहता है कि सौगत (बौद्ध) भी व्यवहार से सर्वज्ञ मानते हैं उनको दूषण क्यों दिया जाता है ? इसका समाधान प्राचार्य करते हैं कि बौद्ध आदिकों के मत में जैसे निश्चय की अपेक्षा व्यवहार मिथ्या है वैसे व्यवहाररूप से भी व्यवहार सत्य नहीं है। परन्तु जैन मत में व्यवहार यद्यपि निश्चय नय की अपेक्षा से मिथ्या है तो भी व्यवहार रूप से सत्य है यदि व्यवहार व्यवहाररूप से भी सत्य न हो तो सर्व ही लोक व्यवहार मिथ्या हो जावे ऐसा होने पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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