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________________ १६० ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : केवली के विहारादि क्रियानों का कर्तृत्वाकर्तृत्व शंका-तीर्थकर केवली भगवान जब समवसरण में विराजते हैं तो पद्मासन से विराजते हैं और विहार होता है तब खड़े होकर, नियत समय अथवा अनियत समय में वाणी भी खिरती है, दण्ड, कपाट, प्रतर लोकपूर्ण रूप समुद्घात भी होता है । ये क्रियायें करते हैं या होती हैं ? यदि होती हैं तो क्यों होती हैं ? स्वभाव तो नहीं है। ___समाधान-अरहंत भगवान के स्थान ( खड़े होना ) आसन (बैठना ) और विहार तथा धर्मोपदेश देना ( नियत और अनियत समय पर वाणी खिरना ) ये सब क्रियायें बिना प्रयत्न के अथवा इच्छा के होती हैं इसलिये इन क्रियाओं को स्वाभाविक कहा गया है, किन्तु कर्मोदय से होती हैं इसलिये औदयिकी कहा गया है। इस सम्बन्ध में निम्न पार्ष बाक्य हैं ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसि। अरहंताणं काले मायाचारोव्व इत्थीणं ॥४४॥ प्र. सा. अर्थ-उन अरहंत देव के उस अरहंत अवस्था में स्थान आसन और विहार तथा धर्मोपदेश ये क्रियायें स्वाभाविक हैं अर्थात् बिना प्रयत्न के होती हैं जैसे स्त्री के मायाचार, तद्गत पर्याय-स्वभाव के कारण, बिना प्रयत्न के होता है। यहाँ पर स्वभाव का अभिप्राय पर्याय स्वभाव से है, द्रव्य स्वभाव से नहीं। जब ये क्रियायें द्रव्य स्वभाव नहीं हैं तो इन क्रियाओं के पर्याय स्वभाव होने का क्या कारण है ? ये क्रियायें पर्यायगत स्वभाव हैं। इसमें कारण कर्मोदय है अतः ये क्रियायें औदयिकी हैं, कहा भी है पुण्णफला अरहता तेसि किरया पुणो हि ओदइया । मोहादीहिं विरहिया तम्हा सा खाइगत्ति मदा ॥४५॥ प्र. सा. अर्थ-पुण्य का फल अरहंत अवस्था है। उनकी क्रिया (स्थान, आसन, विहार, दिव्यध्वनि ) शुद्धात्मतत्व से विपरीत होने के कारण प्रौदयिकी अर्थात् कर्मोदय-जनित है । किन्तु ये क्रियायें मोहादि से रहित अर्थात् बिना इच्छा व प्रयत्न के होती हैं इसलिये आगामी कर्म-बंध का कारण नहीं होतीं, किन्तु इन क्रियाओं के द्वारा कर्म फल देकर क्षय को प्राप्त हो जाता है इसलिये इन क्रियाओं को क्षायिकी भी कहा गया है। ये क्रियायें बिना इच्छा व प्रयत्न के होती हैं इस अपेक्षा से श्री अरहंत भगवान इन क्रियाओं को करते नहीं हैं, किन्तु होती हैं। ये क्रियायें अरहंत की पर्यायें हैं इस अपेक्षा से श्री अहंत भगवान इन क्रियाओं के कर्ता भी हैं, जैसा कि कहा है यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म । या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्न न वस्तुतया ॥५१॥ अर्थ-जो परिणमित होता है सो कर्ता है, जो परिणाम है सो कर्म है और जो परिणति है सो क्रिया है। यह तीनों भिन्न नहीं हैं। इस प्रकार कर्ता के विषय में अनेकान्त है। -जे.ग. 10-9-64/IX/ज. प्र. Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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