SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १५९ अनन्त चतुष्टय के स्वामी अरहन्त शंका-श्री अरहंत भगवान के कौन से चतुष्टय प्रगट होते हैं ? समाधान-दर्शनावरण कर्म के क्षय से अनन्त-दर्शन, ज्ञानावरण कर्म के क्षय से अनन्त ज्ञान, मोहनीय कर्म के क्षय से अनन्त सुख और अन्तराय कर्म के क्षय से अनन्त वीर्य उत्पन्न होते हैं । इसलिये श्री १००८ अरहंत भगवान सर्व सुखी, सर्व शक्तिमान, सर्वदर्शी और सर्व ज्ञानवान हैं। शंका-यवि श्री अरहंत भगवान सर्व सुखी हैं तो क्या उनके विषय-भोग-जनित सुख भी है। यदि नहीं तो उनको सर्व सुखी नहीं कह सकते ? समाधान-विषयभोगों से उत्पन्न हआ जो सुख, उसका अनुभव इन्द्रियों से होता है। श्री १००८ परहंत भगवान इन्द्रियातीत हैं अतः उनके न तो विषय-भोग है और न उस सुख का अनुभव होता है । अर्थात् श्री १००८ अरहंत भगवान के इन्द्रिय-जनित सुख नहीं है, क्योंकि इन्द्रिय-जनित सुख का कारण इन्द्रिय-ज्ञान है। "इन्द्रिय सौख्य साधनीभूतमिन्द्रियज्ञानं हेयं प्रणिन्दति ।" प्रवचनसार, गाथा ५५ की उत्थानिका। अर्थ-इन्द्रिय सुख का साधन भूत इन्द्रिय ज्ञान है जो हेय है। इसप्रकार उसकी निंदा करते हैं । - -. ग. 21-12-67/VII/मुमुक्षु अरहन्त सुखी क्यों व कैसे ? शंका-श्री अरहंत भगवान को सर्व सुखी क्यों कहते हो ? समाधान-सुख का लक्षण आकुलता का अभाव है, क्योंकि पाकुलता ही सुख की विघातक है। श्री अमृतचंद्र आचार्य ने भी प्रवचनसार गाथा १९५ व १९८ की टीका में कहा है ___ "अनाकुलत्वलक्षणाक्षयसौख्यं ।" "अनाकुलत्वलक्षणं परमसौख्यं ।" अर्थात्-अनाकुलता परम सुख अथवा अक्षय-सुख का लक्षण है। आकुलता का उत्पादक मोहनीय कर्म है अत: मोहनीय कर्म के अभाव में प्राकुलता का भी अभाव हो जाता है, इस अपेक्षा से श्री १००८ अरहंत भगवान को सर्व सुखी कहा गया है । कहा भी है "तत्सुखं मोहक्षयात् ।" तत्त्वार्थवृत्ति ९४४ । "सौख्यं च मोहक्षयात् ।" पद्मनन्दि-पंचविंशति ८।६। अर्थात्-मोहनीय कर्म के क्षय से अनन्त सुख, अक्षयसुख, परम सुख, सर्व सुख होता है । श्री १००८ अरहंत भगवान के सुख का प्रतिपक्षी मोहनीय कर्म का क्षय हो गया है अतः उनको किसी प्रकार का दुःख नहीं है, इसलिये वे सर्व सुखी हैं । सर्व सुखी का यह अर्थ नहीं है कि श्री १००८ अरहंत भगवान के इन्द्रियजनित सुख भी है। -जे ग. 21-12-67/VII/ मुमुक्षु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy