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________________ [ १६ ] 'स्मृतिग्रंथ की सामग्री का यथाबुद्धि संशोधन और परिष्कार किया है। शंका-समाधान अधिकार अभी मेरे पास ही है । शेष सामग्री प्रेषित कर रहा हूँ।' 'पण्डितजी द्वारा मौलिक रूप से लिखित अकालमरण, क्रमबद्धपर्याय, पुण्यतत्त्व का विवेचन आदि ट्रैक्टों का सारसंक्षेप ग्रंथ में आ जाए तो अच्छा रहे। उन पर लिखी हुई कोई समीक्षाएँ हों तो वे भी दी जा सकती हैं।' 'ग्रंथ में कुछ श्रेष्ठ सैद्धान्तिक लेखों की कमी है। करणानुयोग पर समर्थ विद्वानों के कुछ लेख होने चाहिए थे। सम्यग्ज्ञान पर भी लेख तैयार करवाइए। प्रो. एल. सी. जैन से गणित विषय का शोधपरक लेख मंगवाइए । स्वयं शास्त्रीजी ( जवाहरलालजी ) दस करण, पाँच भाव, सप्रतिपक्ष पदार्थ अथवा अन्य किसी गंभीर विषय पर लेखनी चलावें ।' उक्त आशय का पत्र उन्होंने मुझे भी १-१२-८१ को लिखा। डॉ. सा. ने इसके पूर्व मेरे पत्र के उत्तर में मुझे दिनांक ३-४-८० को प्रथम पत्र लिखा था जिसमें आपने मुख्तार सा. पर संक्षिप्त लेख प्रस्तुत करने हेतु अपनी स्वीकृति भेजी थी। इससे पूर्व मेरा और पापका पत्राचार का सम्बन्ध भी नहीं था। बस, यहीं से डॉ. सा. मेरे अनन्य सहयोगी बन गए । इस ग्रंथ के सम्पादक के रूप में साहाय्य देने हेतु मेरे निवेदन को स्वीकार कर आपने अनन्य सहयोग देना प्रारम्भ किया। अब हम दो हो गये थे और प्रेरणा व पाशीर्वाद प्रा. क. श्री श्र तसागरजी महाराज, मुनि वर्धमानसागरजी महाराज और प्रायिका विशुद्धमती माताजी के थे ही। फिर ग्रंथ की गरिमा के संवर्धन के लिए और क्या चाहिए था। D५ मा स्मृति ग्रंथ की सामग्री डॉ. सा. की उक्त भावना के अनुरूप संकलित की गई। मैंने करणदशक, भावपंचक तथा सप्रतिपक्ष पदार्थ पर लम्बे लेख लिखे। प्रो. एल. सी. जैन सा. ने 'लब्धिसार की गणित व नेमिचन्द्र' लेख भिजवाया । पं० विनोदकुमारजी ने 'अकालमरण' ट्रैक्ट का सार-संक्षेप लिखा। उक्त संकलनयुक्त स्मृति ग्रंथ की सामग्री की प्रशंसा उदयपुर में शिक्षण शिविर में समागत पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य, सागर ने भी की परन्तु अब तक की करणी का होनहार कुछ और ही था। तृतीय एवं चरम सोपान : पं० रतनचन्द मुख्तार : व्यक्तित्व और कृतित्व पूज्य माताजी के सान्निध्य में 'तिलोयपण्णती' के सम्पादन-प्रकाशन निमित्त जोधपुर से प्रागत डॉ० पाटनी जी से मिलने दि० १६-७-८२ शुक्रवार को मैं उदयपुर गया। वहां पुनरपि ग्रंथ की रूपरेखा के बारे में विचारविमर्श हुया और यह विचार सामने आया कि विद्वानों के लेखों का तो अन्यत्र भी उपयोग हो सकता है, परन्तु मुख्तार सा० द्वारा विगत दो-तीन दशकों में किये गए शंका-समाधानों का संकलन किया जाए। वे सब इस ग्रंथ के अंग बन सकें तो बहुत उपयोगी सिद्ध होंगे । यह विचार सबको पसन्द आया। प्रा० कल्पश्री तथा वर्धमानसागर जी महाराज भी हमारी विचारणा से सहमत हुए। अब इस ग्रन्थ का नाम 'पं० रतनचन्द मुख्तार : व्यक्तित्व और कृतित्व' रखना तय हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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