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________________ [ १५ ] सम्पन्न हुई। श्रद्धय गुरुवर मुख्तार सा. भी ९-९-८० को पद्मपुरा पहुँचने वाले थे परन्तु ज्वरग्रस्त हो जाने के कारण वे सहारनपुर से नहीं आ पाये । मैं ग्रंथ के प्रकाशन की पूरी तैयारी सहित भीण्डर लौट आया। द्वितीय सोपान : स्मृति ग्रन्थ कुछ समय बाद ही अप्रत्याशित घटित हुआ। दिनांक २८-११-८० की रात्रि में सात बजे पूज्य गुरुवर्यश्री की आत्मा इस नाशवान नर-पर्याय को छोड़कर | लोक को प्रयाण कर गई। उस पवित्र आत्मा को अभिनन्दन ग्रंथ समर्पित करने की हमारी अभिलाषा अपूर्ण रही, उनसे ज्ञान लाभ के हमारे स्वप्न भी धरे रह गये। ऐसी परिस्थिति में अभिनन्दन ग्रंथ को परिवर्तित कर 'स्मृति ग्रन्य' के रूप में प्रकाशित करने के मेरे भाव बने। तभी निमोड़िया ( जयपुर ) में विराजमान संघ से ९-१२-८० का लिखा पत्र पाया कि 'अब अभिनन्दन ग्रंथ का विचार तो रद्द कर दीजिये और इसके प्रकाशन में होने वाले अर्थ व्यय और मुख्तार सा. को भेंट दी जाने वाली सम्मान राशि को मिलाकर उनके नामका स्मारक निधि ट्रस्ट स्थापित करने पर विचार कीजिये ।' किन्तु मैंने गुरुदेव की स्मृति में स्मृति ग्रंथ ही प्रकाशित करने के अपने भावों से संघ को अवगत कराया। पं० विनोदकुमारजी शास्त्री और श्रीमान् रतनलालजी मेरठ वालों का भी यही विचार था। हमारे पत्र मिलने पर महाराज श्री ने ग्रंथ को स्मृति ग्रंथ के रूप में ढालने की स्वीकृति दी। डॉ. पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य सागर वालों से परामर्श किया तो उन्होंने दि० २४-३-८१ के अपने पत्र में लिखा-'अब अभिनन्दन ग्रंथ की बात तो समाप्त हो गई। अब तो स्मृति ग्रंथ ही प्रकाशित किया जा सकता है। इसके लिए श्रद्धाञ्जलि-संस्मरण खण्ड के वाक्यों को भूतकाल में बदल दीजिये । परिश्रम तो होगा ही, पर वैसा किए बिना कोई चारा भी नहीं।' विचार-विमर्श के लिए मैं और श्री रतनलालजी मेरठ वाले प्राचार्यकल्पश्री के संघ के दर्शनार्थ २०-४-८१ को जहाजपुर पहुँचे। निर्णय किया गया कि ग्रंथ में केवल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सामग्री ही प्रकाशित की जाए चाहे कार्य में विलम्ब हो; कारण कि वैसे भी अब अभिनन्दनीय पुरुष तो रहे नहीं, फिर किसको भेंट करने की जल्दी? और सारी सामग्री आयिका १०५ विशुद्धमती माताजी को भी दिखाई जाए। लौटते हुए मैं उदयपुर माताजी के पास पहुँचा । माताजी ने देखकर कहा कि बदले वातावरण के अनुसार संशोधित कर फिर दिखाना । मैंने वैसा ही किया और आवश्यक परिवर्तन कर सकल सामग्री १६-१०-८१ को अपने पिताश्री के हाथों माताजी के पास भिजवा दी। माताजी ने सामग्री देखकर मुझे बुलवाया। मैं १९-११-८१ को पहुँचा । माताजी हँसते हुए मुझसे बोले-"जवाहरलालजी ! 'मुख्तार सा. चिरंजीव रहें।" मैं सुनते ही समझ गया कि इस वाक्य को और ऐसे ही अन्यत्र भी कतिपय वाक्यों को स्मृतिग्रंथ के अनुसार परिणत करना भूल गया हूँ। माताजी ने अनेक संशोधन तो किए ही, साथ में यह भी परामर्श दिया कि 'आप जोधपुर चले जाइये और डॉ. चेतनप्रकाशजी पाटनी से इस ग्रंथ के परिष्करण में सहयोग लीजिए।' कुछ विचार कर फिर बोले-'अच्छा ! यह सामग्री ही जोधपुर भिजवा दें।' मैंने ऐसा करना ही उचित समझा, सारी सामग्री अविलम्ब जोधपुर भेज दी गई। डॉ. सा. ने भी तत्परता से सामग्री का शोधन कर उसे माताजी को लौटा दिया। साथ में पत्र लिखा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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