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________________ १५२ ] क्षीरण कषाय के जघन्य श्रुतज्ञान शंका- "पंचास्तिकाय टीका पृ० १५५ बारहवें गुणस्थान में उत्कृष्टतः ११ अंग १४ पूर्व का तथा जघन्यतः अष्ट प्रवचनमात्र का ज्ञान होता है।" प्रश्न- क्या बारहवें गुणस्थान में भी अष्टप्रवचनमात्र का ज्ञान सम्भव है ? समाधान - बारहवे गुणस्थान में पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्क, ये दो प्रादि के शुक्लध्यान होते हैं । ये दो शुक्लध्यान पूर्वविद् के होते हैं । कहा भी है [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : शुक्ले चा पूर्वविदः । [ त० सू० ९ / ३७ ] यह उक्त सूत्र उत्कृष्ट ज्ञान की अपेक्षा प्रवृत्त हुआ है । सर्वार्थसिद्धि ९/४६ में बारहवें गुणस्थान वाले को निर्ग्रन्थ संज्ञा दी है । वहाँ कहा है- मुहूर्तावुद्दिद्यमानकेवलज्ञानदर्शनभाजो निर्ग्रन्थाः । अर्थात् जिन्हें अन्तर्मुहूर्त पश्चात् केवलज्ञान और केवलदर्शन प्रकट होने वाला है वे निम् कहलाते हैं । फिर उसी ग्रन्थ में उसी अध्याय के ४७ वें सूत्र की टीका में लिखा है - निर्ग्रन्थ के उत्कृष्टतः १४ पूर्ण का और जघन्यतः अष्टप्रवचनमातृका प्रमाण ज्ञान होता है । उत्कर्षेण निर्ग्रन्थाश्चतुर्दश पूर्वधराः । जघन्येन निर्ग्रन्थानां श्र ुतमष्टौ प्रवचनमातरः । इस आर्ष वाक्य के अनुसार बारहवें गुणस्थान में अष्टप्रवचनमातृका प्रमाण ही श्रुतज्ञान हो, यह सम्भव है । Jain Education International - - जै. ग. 20-8-64 / IX / ध. ला. सेठी युगपत्क्षयी घातित्रय की तुल्य स्थिति करने का विधान शंका - बारहवें गुणस्थान के अन्त समय में ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों का एक साथ क्षय होता है। इनकी समान स्थिति कैसे व कहाँ ( अर्थात् किस गुणस्थान में ) करली जाती है ? समाधान - सूक्ष्मसां पराय नामक दसवें गुणस्थान के अन्त समय विषय तीन घातियानि का स्थिति सत्त्व अन्तर्मुहूर्त मात्र रह जाता है, किन्तु यह अन्तर्मुहूर्त क्षीणकषाय गुणस्थान के काल से असंख्यात गुणा है (लब्धिसार क्षपणसार बड़ी टीका पृ० ७१२ गाथा ५९९ ) । क्षीणकषाय गुणस्थान में तीन घातिया कर्मों का स्थितिकाण्डक घात करे है । संख्यात हजार स्थितिकाण्डक हो जाने पर जब क्षीणकषाय गुणस्थान का संख्यात बहु भाग काल व्यतीत हो जाता है और संख्यातवाँ भाग काल शेष रह जाता है तब अन्तिम स्थितिकाण्डकघात के द्वारा क्षीणकषाय के अवशेष काल से तीन घातिया कर्मों की अधिक स्थिति का घात होय है, अर्थात् तीन घातिया कर्मों की स्थिति क्षीणकषाय गुणस्थान के अवशेष काल के बराबर रह जाती है । गाथा ६०१ व ६०२ की टीका । ऐसे अंत कांडक का घात होते कृतकृत्य छद्मस्थ हो जाता है, क्योंकि इसके पश्चात् तीन घातिया कर्मों का स्थितिकांडक घात नहीं है । केवल उदयावली के बाह्य तिष्ठता कुछ द्रव्य का उदयावली में प्राप्त होने से उदीरणा होय है | क्षीणकषाय के काल में एक समय एक प्रावली काल शेष रहने तक उदीरणा होय है । उदय आवली काल शेष रहने पर उदीरणा नहीं होती, क्योंकि उदयावली के द्रव्य की उदीरणा नहीं होय है। एक-एक समय विष एक-एक निषेक क्रम से उदय होय है । क्षीणकषाय के द्विचरम समय में निद्रा व प्रचला कर्मका सत्त्व का नाश होय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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