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________________ १५० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : उपशान्तकषाये चेति गुणस्थानचतुष्टये पृथक्त्ववीचारं नाम प्रथमं शुक्लध्यानं भवति । क्षीणकषायगुणस्थानेषु एकत्ववितर्क वीचारं भवति ।" इससे स्पष्ट हो जाता है कि मोक्षशास्त्र के टीकाकारों का यह ही एक मत रहा है कि उपशम श्रेणी में एकत्ववितर्क दूसरा शुक्लध्यान नहीं होता है। अतः श्री १०८ पूज्यपाद आचार्य के वचनों में पूर्वापर विरोध नहीं है। इस सम्बन्ध में श्री १०८ वीरसेन स्वामी का भिन्न मत है। उनके मतानुसार दसवें गुणस्थान तक धर्मध्यान होता है । उपशांतमोह ग्यारहवें गुणस्थान में भी पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्क दोनों शुक्लध्यान होते हैं और क्षीणकषाय बारहवें गुणस्थान में पृथक्त्ववितर्क तथा एकत्ववितर्क दोनों शुक्लध्यान होते हैं। धवल पु०१३ पर इस प्रकार कहा है-"मोह का सर्वोपशम करना धर्मध्यान का फल है क्योंकि कषाय सहित धर्मध्यानी के सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान के अन्तिम समय में मोहनीय कर्म की सर्वोपशमना देखी जाती है। तीन घाति कमों का करना एकत्ववितक अवीचार ध्यान का फल है। परन्तु मोहनीय का विनाश करना धर्मध्यान का फल है, क्योंकि सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान के अन्तिम समय में उसका विनाश देखा जाता है। शंका-मोहनीय कर्म का उपशम करना यदि धर्मध्यान का फल है तो इससे मोहनीय का क्षय नहीं हो सकता, क्योंकि एक कारण से दो कार्यों की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है ? समाधान नहीं क्योंकि धर्मध्यान अनेक प्रकार का है, इसलिये उससे अनेक प्रकार के कार्यों की उत्पत्ति मानने में कोई विरोध नहीं आता। शंका-एकत्ववितर्कअवीचार ध्यान के लिये अप्रतिपाती विशेषण क्यों नहीं दिया गया ? समाधान-नहीं क्योंकि उपशान्त कषाय जीव के भवक्षय और कालक्षय के निमित्त से पुनः कषायों को प्राप्त होने पर एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान का प्रतिपात देखा जाता है। शंका-यदि उपशान्त कषाय गुणस्थान में एकत्ववितर्क अवीचार ध्यान होता है तो 'उपसंतो दु पुधत्तं' इत्यादि गाथा वचन के साथ विरोध आता है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उपशांतकषाय गुणस्थान में केवल पृथक्त्ववितर्क वीचार ध्यान ही होता है ऐसा कोई नियम नहीं। और क्षीण कषाय गुणस्थान के काल में सर्वत्र एकत्ववितर्कअवीचार ध्यान ही होता है, ऐसा भी कोई नियम नहीं है, क्योंकि वहाँ योग परावृत्ति का कथन एक समय प्रमाण अन्यथा बन नहीं सकता। इससे क्षीणकषाय काल के प्रारम्भ में पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान का अस्तित्व भी सिद्ध होता है।" -जं. ग. 3-6-65/x/ र. ला. जैन मेरठ बारहवें गुणस्थान में निद्रा का उदय शंका-बारहवें गुणस्थान में यदि जागृत अवस्था हो तो दर्शनावरण कर्म की चार प्रकृतियों का उदय होता है। निद्रा अवस्था में दो निद्रा में से किसी एक का उदय हो सकता है अर्थात् बारहवें गुणस्थान में दर्शनावरण की पांच प्रकृतियों का उदय हो सकता है तो बारहवें गुणस्थान में निद्रा का उदय क्या करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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