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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३९ जाने पर ( नं० ५५ पर ) अन्तर्मुहूर्त, अर्थात् ४८ मिनिट प्राप्त होते हैं। यदि संख्यात को कम से कम दो की सख्या भी मान ली जाय तो ४८ मिनिट कोबार २ से भाग देने पर द्वितीयोपशम सम्यक्त्व का काल करीब ५ सैकण्ड पाता है। इसमें संख्यात बहभाग प्रमत्त संयत का काल है और संख्यातवाँ भाग शेष गुणस्थानों का काल है। जैसा कि पु० ५ पृ० १४ से विदित होता है। इस प्रकार प्रमत्तसंयत का काल करीब ३ सैकण्ड होना चाहिए। जयधवल पु० १ गाथा २० पृ० ३४९-३६२ पर इसप्रकार कथन है उत्कृष्ट श्वासोच्छवास काल ( सैकण्ड ) से केवलज्ञान व केवलदर्शन का काल विशेषाधिक है। इससे एकत्वविर्तक अवीचार का काल विशेषाधिक है। उससे पृथक्त्ववितर्क सवीचार का काल दूना है। उससे गिरते हए सूक्ष्मसाम्पराय संयत का काल विशेषाधिक है । उससे चढ़ते हुए सूक्ष्मसाम्पराय व क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय के काल - क्रमशः उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं। उससे मान का काल दूना है। उससे क्रोध, माया व लोभ का काल क्रमशः विशेषाधिक है। उससे उत्कृष्ट क्षुद्रभवग्रहण विशेषाधिक है। इससे कृष्टिकरणकाल, संक्रामक का काल व अपवर्तना का काल उत्तरोत्तर विशेषाधिक है । उससे उपशान्त कषाय ( ग्यारहवां गुणस्थान ) का उत्कृष्ट काल दुगुना है। उससे क्षीणकषाय का काल विशेषाधिक है। उससे उपशामक का उत्कृष्ट काल दुगुना है। जयधवल पु० १ पृ० ३१९ एवं ३२९-३३० नया संस्करण। उक्त अल्पबहत्व में विशेषाधिकपने को गौण करने पर-उत्कृष्ट श्वासोच्छ्वास-काल को तीन बार दुगुना करने पर उपशान्त कषाय [ ग्यारहवें गुणस्थान ] का उत्कृष्ट काल छह सैकण्ड प्राप्त होता है। पुनरपि दुगुना करने से उपशामक का उत्कृष्ट काल १२ सैकण्ड प्राप्त होता है, अर्थात् ८३ से १० वें गूणस्थान का सम्मिलित काल १२ सैकण्ड और ग्यारहवें गुणस्थान का काल ६ सैकण्ड तथा उतरने वाले का [८ ३ से १० वें गुणस्थानका] काल १२ सैकण्ड इन तीनों को जोड़ने से [ १२ +६+ १२ ] उपशम श्रेणी पर चढ़ने और उतरने का सम्मिलित उत्कष्ट काल ३० सैकण्ड प्राप्त होता है। इससे प्रमत्तसंयत का उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा है जो कम से कम ६० सैकण्ड अर्थात् एक मिनिट होना चाहिए । इस प्रकार प्रमत्तसंयत का काल ३ सैकण्ड से ६० सैकण्ड तक होना चाहिए । मरण की अपेक्षा जघन्य काल एक समय है। मुनि-निद्रा का काल-निद्रा और प्रचला का उदय बारहवें गुणस्थान के द्विचरम समय तक रहता है, अतः अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में भी निद्रा अवस्था हो सकती है। धवल पु० १५ पृ० ८१ के अनुसार दर्शनावरण कर्म के दो उदय स्थान हैं (१) चार प्रकृतिक उदय स्थान [ चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शना०, अवधिदर्शना० और केवल दर्शना०] ( २ ) पाँच प्रकृतिक उदय स्थान [ उपर्युक्त ४ तथा पाँच निद्राओं में से एक ] निद्रा की उदीरणा का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। [ ध० १५/६२ ] तथा निद्रा की उदीरणा का उत्कृष्ट अन्तर भी अन्तर्मुहूर्त है । [ ध० १५/६८ ] बारहवें गुणस्थान से पूर्व जिस समय निद्रा का उदय होगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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