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________________ १३८ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : "देशकालज्ञस्यापि बालवृद्धश्रान्तग्लानत्वानुरोधेनाहारविहारयोरल्पलेपत्वं विगणय्य यथेष्टं प्रवर्तमानस्य मृदाचरणीभूय संयमं विराध्यासंयतजन समानी भूतस्य तदात्वे तपसोऽनवकाशत्या शक्यप्रतिकारो महानुलेपो भवति तन्न योनुत्सर्ग निरपेक्षोऽपवादः।" अर्थ—देशकालज्ञ को भी, यदि वह बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लानत्व के अनुरोध से जो आहारविहार है, उससे होने वाले अल्पलेप को न गिनकर उसमें यथेष्ट प्रवृत्ति करे तो मृदु आचरण रूप होकर संयम का विरोधी असंयतजनों के समान हो जाता है। इसलिये उसके उस समय तप का अवकाश नहीं रहता अतः उसके ऐसा महान् लेप होता है जिसका प्रतिकार अशक्य है, इसलिये उत्सर्ग ( सातवें गुणस्थान ) निरपेक्ष अपवाद ( छठा गुणस्थान ) श्रेयकर नहीं है। मुनि के छठा और सातवाँ गुणस्थान होता रहता है, किसी भी एक गुणस्थान में अन्तमुहूर्त से अधिक काल तक नहीं ठहरता। __ -. ग. 4-9-69/VII/शि. च. जैन प्रमत्तसंयत का काल तथा मुनि-निद्रा का काल शंका-मुनियों को निद्रा का काल कितना है ? छठे गुणस्थान का काल कितना है ? श्री कानजी स्वामी को हमने उदयपुर में पूछा था कि मुनि-निद्रा का काल कितना है, वे कितने समय तक सो सकते हैं ? तो उनका उत्तर था कि "छठे गुणस्थान के काल-प्रमाण निद्रा सम्भव है और वह काल पौण सैकण्ड प्रमाण है......... ऐसा मुख्तार सा० कहते थे।" तो झट से श्री डॉ० भारिल्ल सा० पूछने लगे कि 'कौन मुख्तार ?' तो फिर कानजी स्वामी ने कहा-"रतनचन्द मुख्तार, सहारनपुर वाले। छठे गुणस्थान का यह काल कैसे आता है, यह मुख्तार जाने।" इतना सुनकर प्रमत्तसंयत के काल के विषय में उनसे विशेष चर्चा करना हमने अनपेक्षित समझा और अब आपको ही कष्ट दे रहे हैं। समाधान-प्रमत्तसंयत का काल तथा मुनिनिद्रा का काल-धवल पु०५ पृ० १४ पर अन्तर का कथन है। वहाँ अप्रमत्तसंयत जीव के अन्तर का कथन करते हुए लिखा गया है कि अप्रमत्त संयत जीव उपशम श्रेणी पर चढ़कर पुनः लौटा और अप्रमत्त संयत हो गया। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जघन्य अन्तर है । शंका-नीचे के प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानों में भेजकर अप्रमत्तसंयत का जघन्य अन्तर क्यों नहीं कहा? समाधान-उपशम श्रेणी के सभी गूणस्थानों के कालों से नीचे के एक गुणस्थान का काल भी संख्यातगुणा है। अर्थात्-उपशमश्रेणी के अष्टम, नवम, दशम, एकादश, दशम नवम तथा अष्टम गुणस्थानों के समि लित काल से प्रमत्तसंयत का काल सख्यातगुणा है । अतः अष्टम, नवम, दशम तथा एकादश; इन गुणस्थानों का काल ज्ञात होने पर प्रमत्तसंयत का काल ज्ञात हो सकता है। धवल पु० ६ पृ० ३३८ पर उपशमश्रेणी की अपेक्षा अल्पबहुत्व बताते हुए नं० ४६ पर दर्शन मोह का उपशान्त काल अर्थात् द्वितीयोपशम सम्यक्त्व का काल दिया है। इसके पश्चात् ६ स्थान संख्यातगुणे-संख्यातगणे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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