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________________ ११८ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : बन्ध व्युच्छिन्न प्रकृतियों का पुनः बन्ध शंका-प्रायोग्यलब्धि में ३४ बंधापसरण होते हैं, जिनमें नरकायु आदि प्रकृतियों को बंध-व्युच्छित्ति हो जाती है । सम्यग्दर्शन हो जाने पर क्या चौथे गुणस्थान में प्रकृतियों का पुनः बंध होने लगता है या नहीं? समाधान-उन प्रकृतियों में से देवायु, अस्थिर, अशुभ, अयश, अरति, शोक और असाता वेदनीय, इन प्रकृतियों का पुनः बन्ध होने लगता है। ३४ बंधापसरण का कथन कर्मभूमिया मनुष्य व तिर्यंच की अपेक्षा से है। सम्यग्दृष्टि के देवायु बंधव्युच्छित्ति सातवें गुणस्थान में होती है और अस्थिर आदि छह प्रकृतियों की बंध-व्युच्छित्ति छठे गुणस्थान में होती है । -जं. ग. 17-7-67/VI/ज. प्र. म. कु. चौथे गुणों से प्रागे चारित्र में विशुद्धि या सम्यक्त्व में ? शंका-चौथे गुणस्थान से जैसे-जैसे गुणस्थान बढ़ता है, चारित्र में विशुद्धि आती है या सम्यक्त्व में ? समाधान-चौदह गुणस्थानों में से पहले चार गुणस्थान तो दर्शनमोह की अपेक्षा से हैं और पांचवें से बारहवें गुणस्थान तक के आठ गुणस्थान चारित्रमोह की अपेक्षा से हैं और अन्त के दो अर्थात् तेरहवाँ व चौदहवाँ गुणस्थान योग की अपेक्षा से हैं। क्योंकि पांचवें से आठ गुणस्थानों में चारित्र की विवक्षा है; अत: चौथे से जैसेजैसे गुणस्थान बढ़ता है चारित्र में तो विशुद्धता आती ही है, सम्यक्त्व में ( सम्यग्दर्शन में ) विशुद्धता भजनीय है । -जं. सं. 10-1-57/VI/दि. ज. स. एत्मादपुर असंयत सम्यक्त्वी के नित्य निर्जरा नहीं होती शंका-क्या चतुर्थ गुणस्थान में नित्य प्रतिसमय निर्जरा [ गुणणिनिर्जरा ] होती रहती है ? मेरे खयाल से तो ऐसा होना असम्भव है। पंचाध्यायी में तो चतुर्थगुणस्थानवर्ती के निरंतर निर्जरा बताई है। समाधान-पंचाध्यायी अनार्षग्रन्थ है। जयधवल पु० १२ पृ० २८४-२८५ पर स्पष्ट लिखा है कि अपर्वकरण एवं अनिवृत्तिकरण में प्रारम्भ किये गये वृद्धिरूप परिणाम सम्यक्त्व प्राप्त होने पर जब तक रहते हैं [ अर्थात् जब तक एकान्तानुवृद्धिरूप परिणाम रहते हैं ] तब तक दर्शनमोहनीय के अतिरिक्त अन्य कर्मों की असंख्यातगुणश्रेणिनिर्जरा होती है। उसके पश्चात् विघातरूप [ मन्द ] परिणाम हो जाते हैं, तब असंख्यातगुणश्रेणिनिर्जरा, स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात आदि सब कार्य बन्द हो जाते हैं। यदि चतुर्थगुणस्थान में प्रतिसमय नित्य असंख्यातगुणश्रेणिनिर्जरा होने लगे तो ३३ सागर की आयु वाले देव व नारकी सम्यग्दृष्टि के तो सम्पूर्ण कर्म निर्जरा को प्राप्त हो जाने चाहिए थे। श्री पण्डित माणिकचन्दजी कौन्देय, न्यायाचार्य कहते थे कि करणानुयोग समझना लोहे के चने चबाना है। -पत 9-12-79/I/ज. ला. जैन, भीण्डर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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