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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १०७ मिथ्यादृष्टि के भी सम्यक्त्व प्राप्ति के पूर्व करणत्रय होते हैं शंका-क्या पाँचवें और सातवें गुणस्थान से पूर्व अधःकरणादि होते हैं ? समाधान-सम्यग्दृष्टि के पांचवें या सातवें गुणस्थान को प्राप्त करने से पूर्व अथवा मिथ्यादृष्टि के क्षयोपशम सम्यक्त्व सहित पाँचवाँ या सातवाँ गुणस्थान प्राप्त करने से पूर्व अधःकरण व अपूर्वकरण दो ही करण होते हैं। किन्तु जो मिथ्याष्टि प्रथमोपशम सहित पांचवां या सातवाँ गुणस्थान प्राप्त करता है उसके तीनों करण होते हैं, क्योंकि प्रथमोपशम सम्यक्त्व से पूर्व तीनों करण होते हैं। -जं. सं. 11-12-58/v/रा. दा. कराना प्रायोग्य लब्धि में स्थिति के अल्प होने का हेतु शंका-जब यह जीव सम्यक्त्व के सन्मुख होता है तो कर्मों की स्थिति अंतःकोड़ाकोड़ी सागर रह जाती है। कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोडाकोड़ी सागर है तो कम किस प्रकार करता है ? समाधान-अनादि मिथ्यारष्टि जीव के प्रथमोपशम सम्यक्त्व से पूर्व पाँच लब्धियाँ होती हैं। क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना लब्धि, प्रायोग्य लब्धि और करण लब्धि । इनमें से देशना लब्धि का स्वरूप इस प्रकार है-"छह द्रव्यों और नौ पदार्थों के उपदेश का नाम देशना है। उस देशना से परिणत आचार्य आदि की उपलब्धि को और उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, धारण तथा विचारण को देशना लब्धि कहते हैं। छह द्रव्यों और नी पदार्थों के स्वरूप के विचारने रूप परिणामों के द्वारा सर्व कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति और अप्रशस्त कर्मों के उत्कृष्ट अनुभाग को घात करके अन्तः कोडाकोड़ी सागरोपम स्थिति में और द्वि स्थानीय अनुभाग में अवस्थान करने को प्रायोग्यलब्धि कहते हैं। कहा भी है छद्दव्वणवपयत्थोवदेसयर सूरिपहुदिलाहो जो । देसिदपदस्थधारणलाहो वा तदियलद्धी दु॥६॥ अंतोकोडाकोड़ी विट्ठाणे ठिदिरसाण जं करणं । पाउग्गलद्धिणामा भव्वाभग्वेसु सामण्णा ॥७॥ लम्धिसार । इनका अभिप्राय ऊपर कहा जा चुका है। आत्म-परिणामों में बहुत शक्ति है, सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति को छेदकर कर्मों की अंतःकोडाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति कर देता है और सम्यक्त्व नामक आत्म परिणाम संसार की अन्त रहित अर्थात् अमर्यादित स्थिति को छेद कर अर्ध पुद्गल परिवर्तन मात्र कर देता है अर्थात मर्यादित कर देता है। -जे. ग. 30-11-67/VIII/क. ला. अनिवृत्तिकरण के परिणामों का स्वरूप शंका-अनिवृत्तिकरण के लक्षण में बतलाया है कि प्रति समय एक ही परिणाम होता है। इसका क्या अभिप्राय है? परिणाम तो स्थिर नहीं है फिर इतने काल तक एक परिणाम कैसे रह सकते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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