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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ९१ से कुछ न्यून होता है । यदि उपसर्ग केवली के ही उस विवक्षित अंग की पूर्ति नहीं होती तो सिद्ध जीव के आकार में उस अंग की पूर्ति कैसे सम्भव होगी ? सिद्धों का आकार किंचित् ऊन चरम शरीर के आकार प्रमाण होता है, यह बात निम्नलिखित श्रार्ष ग्रन्थों से सिद्ध हो जाती है ट्ठट्ठकम्मदेहो लोयालोयस्स जाण ओ दट्ठा । पुरिसायारो अप्पा सिद्धो झाएह लोयसिहरत्यो ॥ ५१ ॥ द्रव्यसंग्रह इस गाथा में सिद्धों के स्वरूप का वर्णन करते हुए सिद्धों को पुरिसायारो कहा है। जिसका अर्थ संस्कृत टीकाकार ने इसप्रकार किया है- 'किञ्चिदूनच रमशरीराकारेणगत सिक्थमूषगर्भाकारवच्छायाप्रतिमावद्वा पुरुषाकारः ' अर्थात् सिद्धों का आकार अंतिम शरीर के आकार से कुछ कम होता है। मोमरहित मूष के बीच के आकारवत् अथवा छाया के प्रतिबिम्ब के समान सिद्धों का आकार है । fuarter अट्ठगुणा किंचुणा चरमदेहदो सिद्धा । लोयग्गठिदा णिच्चा उत्पादवएहिं संजुत्ता ॥ १४ ॥ द्रव्यसंग्रह यहाँ 'सिद्धा चरमदेहवो किचूणा' से भी यही कहा गया है कि सिद्धों का आकार चरमशरीर के आकार से कुछ ऊन ( न्यून ) होता है । गव्यूतस्तत्र चोर्ध्वायास्तुर्ये भागे व्यवस्थिताः । अन्त्यकाय प्रमाणात किंचित्संकुचितात्मकाः ||११ / ६ लोकविभाग यहाँ पर भी 'अन्त्यकायप्रमाणात्त' द्वारा यह कहा गया है कि अंतिम शरीर के आकार के प्रमाण से कुछ संकुचित ( हीन ) श्राकार सिद्धात्मा का होता है । इन आर्ष ग्रन्थों के आधार से यह सिद्ध हो जाता है कि केवलज्ञान होने पर परमोदारिक शरीर में सर्व अंगोपांग पूर्ण हो जाते हैं और उसी के आकाररूप सिद्धों का आकार होता है । [ केवलज्ञान होने पर बाहुबली की लताएँ हट गई थीं, क्योंकि केवलज्ञान अवस्था में उपसर्ग नहीं रहता । ] - ज० लाo जैन, भीण्डर पत्र - सत्र 77-78 भद्रबाहु प्राचार्य श्रुतकेवली थे । गणधर भी सकल तज्ञ होते हैं । शंका- क्या भद्रबाहु आचार्य श्रुतकेवली हुए? क्या उनको द्वादशांग का ज्ञान था ? द्वादशांग का ज्ञान तो गणधर को ही होता है, किन्तु वे श्रुतकेवली नहीं कहलाते ? Jain Education International समाधान - श्री महावीर भगवान के निर्वारण को प्राप्त होने पर ६२ वर्ष तक केवलज्ञानी भरत क्षेत्र में रहे । तदनन्तर श्री विष्णु प्राचार्य सकल श्रुतज्ञान के धारण करने वाले हुए | पश्चात् अविच्छिन्न सन्तान स्वरूप से श्री नन्दि, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु श्राचार्य सकल श्रुत के धारक अर्थात् श्रुतकेवली हुए । श्री भद्रबाहु भट्टारक के स्वर्ग को प्राप्त होने पर भरत क्षेत्र में श्रुतज्ञानरूपी पूर्ण चन्द्र अस्तमित हो गया । कहा भी है - "एवं महावीरे जिवाणं गदे वासट्ठि वरसेहि केवलणाण दिवायरो भरहम्मि अत्यमिदि णवरि तक्काले सयलसुदणाणताणहरो विष्णुअइरियो जावो तदो अत्तट्टसंताणरूवेण नंदि आइरिओ अवराइदो गोवद्वणो भद्दबाहु त्ति एवे सकलसुवधारया जादा । एदेसि पंचन्हं पि सुदकेवलीणं कालसमासो वस्ससदं तदो भद्दबाहु भडारए सग्गं गवे संते भरहवखेत्तम्मि अथमिओ सुदणाण संपुण्ण-मियंको ।" धवल पु० ९ पृ० १३० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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