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________________ ९० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : समाधान-सुदर्शन मुनि का चरित्र पढ़ने वालों को यह शिक्षा मिलती है कि कितना भी उपसर्ग आजाय हमको ब्रह्मचर्य की रक्षा करनी चाहिये। जैसे वीरों का चरित्र पढने से वीरता जागृत होती है, उसी प्रकार ब्रह्माचारियों का चरित्र पढ़ने से मन में ब्रह्मचर्य की भावना जागृत होती है। कुशील सेवन करने से नरकगति आदि के दुःख भोगने पड़ते हैं। वह वेश्या के चरित्र से शिक्षा मिलती है। इसलिये सवको प्रथमानुयोग की स्वाध्याय करनी चाहिये। -जै. ग. 19-12-66/VIII/र. ला. जन बाहुबली निःशल्य थे शंका-क्या बाहबली के शल्य थी, इसीलिये उनके सम्यक्त्व में कमी थी? समाधान-श्री बाहुबलीजी सर्वार्थसिद्धि से चय कर उत्पन्न हुए थे। कहा भी है-"आनन्द पुरोहित का जीव जो पहले महाबाह था और फिर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुअा था, वह वहाँ से च्युत होकर भगवान वृषभदेव की द्वितीय पत्नी सुनन्दा के बाहुबली नाम का पुत्र हुआ था ।" महापुराण पर्व १६ श्लोक ६। जो जीव सर्वार्थसिद्धि से चय कर मनुष्य होता है वह नियम से सम्यग्दृष्टि होता है धवल पु० ६ पृ० ५०० । अतः यह कहना कि श्री बाहबली के सम्यक्त्व में कमी थी, ठीक नहीं है। तप के कारण श्री बाहुबली को सर्वावधि तथा विपूलमति मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न होगया था। महापुराण पर्व ३६ श्लोक १४७ । अतः श्री बाहुबली के शल्य नहीं था क्योंकि 'निःशल्यो व्रती ॥१८॥' ऐसा मोक्षशास्त्र अध्याय सात में कहा है। श्री बाहुबली के हृदय में विद्यमान रहता था कि 'भरतेश्वर मुझसे संक्लेश को प्राप्त हुआ है, इसलिये भरतजी के पूजा करने पर उनको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। महापुराण पर्व ३६ श्लोक १८६ । जे. ग.25-4-63/IX/ब्र. प. ला. (१) केवलज्ञान होते ही बाहुबली का उपसर्ग दूर हो गया था। (२) केवलज्ञान होने पर छिन्न-भिन्न अंगोपांग भी पूर्ववत् पूर्ण हो जाते हैं। शंका-क्या बाहुबली को केवलज्ञान होते ही लताएं हट गई थीं। सिंह आदि के द्वारा यदि किसी मुनि का शरीर खाया गया हो अथवा बेड़ी आदि पड़ी हो या शरीर का कुछ भाग दग्ध हो गया हो, तो ऐसे मुनि को केवलज्ञान होते ही क्या वह शरीर पूर्ण हो जायगा ? शंका का तात्पर्य यह है कि केवलज्ञान होने के पश्चात् उपसर्ग तो दूर हो ही जाता है, किन्तु उपसर्ग-काल में जो अंग-उपांग क्षीण हो गये थे, क्या वे भी पूर्ण हो जाते हैं। समाधान-केवलज्ञान उत्पन्न होते ही शरीर परमौदारिक हो जाता है और जिनेन्द्र संज्ञा हो जाती है। उस शरीर के विषय में श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने समयसार कलश २६ में इस प्रकार कहा है-- नित्यमविकारसुस्थितसर्वांगमपूर्वसहजलावण्यम् । अक्षोभमिव समुद्र जिनेन्द्ररूपं परं जयति ॥२६॥ इस श्लोक में जिनेन्द्ररूप अर्थात जिनेन्द्र के शरीर का वर्णन करते हुए एक विशेषण "सर्वांगम्" दिया है। उसका अभिप्राय यह है कि जिनेन्द्र का शरीर सर्वांग पूर्ण होता है। यदि ऐसा न माना जाय तो सिद्धावस्था में भी आत्मप्रदेशों के आकार को अंगहीन होने का प्रसंग आजायगा, क्योंकि सिद्ध जीव का आकार चरमशरीर के प्राकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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