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________________ ७६ ] [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार : पूर्वकाल में जैन पत्र-पत्रिकाओं में आपके लेख व शंका-समाधान भी समय-समय पर निकलते रहे हैं। निश्चय-व्यवहार नामक विषय पर आपने एक बहुत ही सुन्दर व आगमानुकूल ट्रैक्ट 'व्यवहारनय निश्चयनय का साधनभूत है' लिखा है । काफी समय से प्राप द्वितीय प्रतिमा के व्रत पाल रहे हैं। बड़े एवं छोटे दोनों ही वर्णीजी के साथ आपका घनिष्ट सम्पर्क रहा है। विद्वत्ता के कारण ही आप पर्युषण पर्व में अनेक स्थानों पर जैन समाजों द्वारा आमंत्रित किये गये हैं। आपके विचारों में अतुलनीय समता है और व्यवहार में अनुपम शालीनता। आप लोकेषणा से कोसों दूर हैं। अथक प्रयास किये जाने पर भी अपना फोटो न खिचने देना आपकी लौकिक निस्पृहता का प्रतीक है। आपके परिवार में आपका एक पुत्र व एक पुत्री है, दोनों विवाहित हैं। आपकी धर्मपत्नी काफी समय से रोगग्रस्त थीं। और वे अब नहीं रहीं। वर्तमान समय में आप जीवन के ७६ वें वर्ष में चल रहे हैं। शारीरिक अवस्था भी क्षीण हो चली है तो भी धार्मिक जीवनचर्या में कहीं भी शिथिलता या प्रमाद दृष्टिगोचर नहीं होता। आपका प्रेरणात्मक संदेश यही है "भैया ! इस समय कल्याण करने के सभी अनुकूल साधन हमें सम्पूर्ण रूप में मिले हए हैं, सबसे दुर्लभ जिनागम की श्रद्धा, पठन-पाठन एवं श्रवण है, वह भी प्राप्त है। फिर भी यदि हम कल्याण के मार्ग में अग्रसर न हों तो हमारे से बढ़कर तीन लोक में दूसरा कौन मुर्ख है ?" अन्त में, मैं केवल इतना ही कहूँगा कि जो ज्ञान मुझे आपके सान्निध्य में स्वाध्याय करके प्राप्त हुआ है, उस ऋण से मैं कभी उऋण नहीं हो सकता। परम पूज्य जिनेन्द्रदेव से मैं आपकी दीर्घायु की कामना करता हुआ अतीव श्रद्धा के साथ आपका हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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