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________________ ४४ गुरुदेवश्री आशुकवि थे, प्रत्युत्पन्नमति थे, समयोचित पद्य बनाना उनका दायें हाथ का खेल था, उन्होंने हजारों पद्य बनायें पर खेद इस बात का रहा कि उनके द्वारा निर्मित सारा पछ साहित्य एकत्रित नहीं किया गया क्योंकि गुरुदेवश्री उसी क्षण बनाकर सुना देते थे, कई बार तो उन पद्यों को लिपिबद्ध भी नहीं किया गया। यदि सारा पद्य साहित्य लिपिबद्ध होता तो मैं सोचती हूँ कि एक विराटकाय ग्रंथ बन जाता, गुरुदेवश्री ने खंड काव्य भी विविध राग-रागनियों में अनेक लिखे हैं, अनेक कथाओं को उन्होंने विविध राग-रागनियों में निर्मित किया है, वह सम्पूर्ण साहित्य अभी तक अप्रकाशित है, मैंने अपने भ्राता आचार्यश्री देवेन्द्र मुनि जी म. को निवेदन किया कि वे गुरुदेवश्री का सम्पूर्ण पद्य साहित्य अच्छी तरह से संपादित कर प्रकाशित करावें, जिससे प्रवचन करने वालों को बहुत ही सहूलियत होगी क्योंकि कथा एक ऐसा माध्यम है, जिससे प्रवचन में सहज सरसता आ जाती है। गुरुदेवश्री बहुभाषाविद् थे, वे धाराप्रवाह संस्कृत भाषा में वार्तालाप करते थे, धाराप्रवाह गुजराती भाषा में प्रवचन करते थे, धाराप्रवाह मराठी और राजस्थानी भाषा में वार्तालाप और प्रवचन आदि करते थे। गुरुदेव श्री को हजारों दोहे, श्लोक, कविताएँ, भजन तथा प्राचीन चरित्र कंठस्थ थे। गुरुदेवश्री के प्रवचन की सबसे बड़ी विशेषता थी कि वे गम्भीर से गम्भीर विषय को इस रूप में प्रस्तुत करते थे कि श्रोताओं को यह प्रवचन भार रूप प्रतीत नहीं होता था। सहज हृदयंगम हो जाता था, गुरुदेवश्री का मानना था कि वह प्रवचन क्या जो श्रोताओं के पल्ले न पड़े, प्रवचन केवल पांडित्य का प्रदर्शन करना नहीं है, प्रवचन श्रोताओं के हृदय को झकझोरना है, उनके अंतर्मानस में तप और त्याग की ज्योति को प्रज्ज्वलित करना है। हम जो बात कहें वह यदि श्रोता के अन्तर्मानस में प्रवेश कर जाती है तो वह सच्ची धर्म कथा कहलाएगी और उस धर्म कथा से निर्जरा भी होगी। गुरुदेवश्री महान् पुण्य पुरुष थे, मैंने स्वयं ने अपनी आँखों से देखा, गुरुदेवश्री अपने गुरुदेवश्री ताराचंद्र जी म. के प्रति सर्वात्मना समर्पित थे। यदि कभी बड़े गुरुदेव तेजतर्रार होकर गुरुदेव को उपालम्भ भी दे देते तो भी गुरुदेव विनीत मुद्रा में गुरुदेव के उपालम्भ को सुनते और उनके चरण पकड़कर अपने अपराध की क्षमा-याचना मांगते। उनका यह मंतव्य था कि शिष्य का दायित्व है कि वह गुरु की आज्ञा का सदा पालन करे। गुरु की आज्ञा में तर्क-वितर्क करना सुयोग्य शिष्य का कर्तव्य नहीं, गुरु की आज्ञा तो हमेशा अविचारणीय होती है, फिर हम विचार क्यों करें, गुरु जो भी कुछ कहते हैं, हमारे हित के लिए कहते हैं, उनसे बढ़कर हमारा हितचिन्तक और कौन हो सकता है, मैंने यह भी अनुभव किया कि जितना गुरुदेवश्री गुरु के प्रति समर्पित थे, उतने ही बड़े गुरुदेव की असीम कृपा उन पर थी। यह गुरु और Jan Education forepaliortal उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ । शिष्य की जोड़ी गणधर गौतम और महावीर की तरह लगती थी, कोई भी अपरिचित व्यक्ति यही समझता था कि ये गुरु-शिष्य पिता और पुत्र होंगे पर वास्तविक स्थिति दूसरी थी। इस युग में इस प्रकार की समर्पण भावना भाग्यशाली गुरु और शिष्य में ही मिलती है और मुझे लिखते हुए अपार हर्ष की अनुभूति होती है कि मेरे भ्राता आचार्यश्री देवेन्द्र मुनि जी म. भी गुरुदेवश्री के प्रति इसी तरह जीवन भर समर्पित रहे और उनकी विमल छत्र-छाया में उनका धार्मिक अध्ययन हुआ, साहित्य का निर्माण हुआ, सद्गुरु की कृपा का ही प्रतिफल है कि वे श्रमणसंघ के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए ये सब गुरुदेवश्री की कृपा का ही चमत्कार है, उनके कुशल नेतृत्व में ही २८ मार्च ९३ को उदयपुर में बद्दर समारोह हुआ। गुरुदेवश्री सफल साधक थे, जिसका ज्वलन्त प्रमाण है कि जीवन की सान्ध्य बेला में गुरुदेवश्री ने अपनी इच्छा से संधारा स्वीकार किया और ४२ घण्टे तक चीवीहार संधारा रहा। शरीर में उस समय अपार वेदना रही होगी पर आपके चेहरे पर वही दिव्य तेज झलक रहा था, वही आध्यात्मिक मस्ती प्रगट हो रही थी, हम आगमों में पादपोपगमन संथारे का वर्णन पढ़ती हैं, उस वर्णन को पढ़ते समय मन में कई बार विचार आया कि यह संथारा किस प्रकार होता होगा पर हमने अपनी आँखों से देखा कि गुरुदेवश्री का संथारा पादपोपगमन संथारे की तरह था। वे ४२ घण्टे में एक क्षण भी न हिले, न डुले, उफ तक भी नहीं की, धन्य हैं ऐसे अध्यात्मयोगी गुरुदेवश्री को जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन यशस्वी रूप से जीया, अध्यात्म मस्ती में जीया और जीवन के अंतिम क्षणों में संथारे का स्वर्ण कलश उन्होंने चढ़ाकर भौतिकवादी व्यक्तियों को यह बता दिया कि जो व्यक्ति जीवन भर हँसते-हँसते जीता है, वह व्यक्ति हँसते-हँसते मृत्यु को किस प्रकार वरण करता है। 7 धन्य है गुरुदेव आपका जीवन धन्य है आपका व्यक्तित्व, धन्य है आपका कृतित्व। आप सच्चे सद्गुरु थे, जीवन के कलाकार थे, आपने हमारे जीवन को ही नहीं घड़ा किन्तु हजारों व्यक्तियों के जीवन के निर्माता रहे, हजारों पथभ्रष्ट व्यक्तियों का आपने सच्चा पथ-प्रदर्शन किया। कमल की तरह आपका जीवन निर्लिप्त रहा है अनंत श्रद्धा के पुंज मेरी कोटि-कोटि वंदना स्वीकार करें। हम आपके अनंत उपकार से कभी भी विस्मृत नहीं हो सकते और हमें पूर्ण आत्म-विश्वास है कि आपकी असीम कृपा सदा ही हमारे पर रही है, आपकी विमल छत्र-छाया में हमारा जीवन साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ा है, वही विमल छत्र-छाया सदा ही हमारे पर रहेगी और हम आपके नाम को सदा रोशन करते रहें, आपके दिए हुए ज्ञान को सदा जन-जन तक पहुँचाते रहें। आपकी यशः कीर्ति को दिग्दिगन्त में फैलाती रहें, इसी मंगल मनीषा के साथ पुनः आपके चरणारबिन्दों में भाव-भीनी वंदना । For Private & Personal Use Only. www.jainelibrary.org 20000
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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