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________________ OP906 श्रद्धा का लहराता समन्दर आभा सदा दमकती रहती थी। आपकी निर्मल आँखों के भीतर से "गृहस्थी केरा टुकड़ा, लम्बा-लम्बा दांत। कमल के सदृश सहज, सरल, स्नेह सुधारस छलकता रहता था। भजन करे तो उबरे, नहीं तो काढ़े आंत॥" वार्तालाप में सहज शालीनता के दर्शन होते थे। आपश्री के हृदय की गुरुदेवश्री सिद्ध जपयोगी थे, जप उन्हें सर्वाधिक प्रिय था। मैंने संवेदनशीलता एवं अपूर्व उदारता दर्शक के हृदय और मस्तिष्क को सहज ही में एक दिन जिज्ञासा प्रस्तुत की कि, आप किसका जप एक साथ प्रभावित करती थी। करते हैं ? गुरुदेवश्री ने कहा, नवकार महामंत्र से बढ़कर और कोई मेरा परम सौभाग्य है कि मुझे सद्गुरुवर्य उपाध्यायश्री पुष्कर मंत्र नहीं। नवकार महामंत्र के पैंतीस अक्षर हैं। एक-एक अक्षर के मुनि जी म. का सहज सान्निध्य प्राप्त हुआ। मेरी सद्गुरुणी जी एक-एक हजार देव सेवक हैं, ३५ हजार देव जिस महामंत्र के सोहन कुंवर जी म. तप और त्याग की साक्षात् प्रतिमा थीं। सेवक रहे हों, उस महामंत्र का क्या कहना। यह महामंत्र आधि, बाल्यकाल में ही मैं उनके चरणों में पहुँची। उनके पवित्र सान्निध्य में व्याधि और उपाधि को मिटाकर सहज समाधि प्रदान करता है। बाल्यकाल की अनमोल घड़ियाँ बीतीं। मैंने उनके चरणों में बैठकर मेरे दादा गुरुश्री ज्येष्ठ मल जी म. ने मुझे जिस रूप में जप आगम साहित्य का और स्तोत्र साहित्य का गहराई से अध्ययन की विधि बताई है, उसी रूप से मैं नवकार महामंत्र का जाप करता किया। आगम के रहस्यों को समझा उस समय गुरुदेव महाराष्ट्र हूँ। यह जाप स्वांत सुखाय है, जब जाप का समय हो जाता है, यदि और गुजरात में विचर रहे थे। जब गुरुदेवश्री महाराष्ट्र, गुजरात मैं जाप के समय से कुछ इधर-उधर हो जाऊँ तो मेरा मन और मध्यप्रदेश की यशस्वी यात्रा सम्पन्न कर उदयपुर पधारे, तब छटपटाने लगता है, नियमित समय पर मैं यदि जाप न करूँ तो गुरुदेवश्री ने सद्गुरुणी जी म. को यह पावन प्रेरणा दी कि हमें मेरा मन ही नहीं लगता। मुझे ऐसी अनुभूति होती है कि तू समय व्याकरण, साहित्य, न्याय, संस्कृत-प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी का चूक रहा है, चाहे घड़ी हो या न हो, मैं ठीक समय पर जाप के तलस्पर्शी अध्ययन करावें। सद्गुरुदेव की प्रेरणा से गुरुणी जी म. लिए बैठ जाता हूँ। जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग आए, लम्बे-लम्बे ने हमारे अध्ययन की सारी व्यवस्था की और हमें न्यायतीर्थ, विहार चल रहे थे, भयंकर गर्मी भी थी तो भी मैं समय होने पर काव्यतीर्थ, सम्पूर्ण व्याकरण मध्यमा, काव्य मध्यमा, साहित्य रत्न जंगल में भी जाप के लिए बैठ गया, अनेकों बार तीन-तीन बजे और जैन सिद्धांताचार्य की परीक्षाएँ दिलवाईं और गुरुदेवश्री की गाँव में पहुँचा। आहार का विलम्ब मेरे मन को प्रभावित नहीं करता कृपा से हम अच्छे नम्बरों से समुत्तीर्ण हुईं। पर भजन का विलम्ब मेरे लिए असह्य हो जाता है। यही कारण है मेरे लघु भ्राता धन्नालाल की भी दीक्षा आपके श्रीचरणों में हुई कि राष्ट्रपति (पूर्व) ज्ञानी जैलसिंह जी, लोक सभा अध्यक्ष श्री और उनका नाम देवेन्द्र मुनि रखा गया। भाई होने के नाते से बलराम जाखड़, पूर्व सांसद एच. के. एल. भगत, राष्ट्रपति डॉ. गुरुदेवश्री के चरणों में अनेकों बार वर्षावास करने के सौभाग्य भी शंकरदयाल शर्मा आदि भारत के सर्वोच्च राजनेता गण समय-समय मिली पर समुपस्थित होते रहे, उस समय भी मैं जाप का समय होने पर चरणों में जब भी पहुँचते, गुरुदेवश्री सदा ही निरर्थक वार्तालाप से जाप में पहुँचता रहा क्योंकि जाप मेरा अपना प्रिय विषय रहा है, दूर रहते, जाते ही या तो वे आगमिक, दार्शनिक प्रश्न पूछते और कई बार मुझे १०३, १०४ डिग्री ज्वर रहता, पर जब मैं जाप जब हमें उत्तर नहीं आता तो वे उसका सटीक समाधान करते। के लिए पद्मासन पर बैठता तो मेरा ज्वर उस समय बिल्कुल मिट गुरुदेवश्री से हमने अनेक आगम की टीकाएँ पढ़ीं, चूर्णियाँ पढ़ीं जाता रहा है, जाप में अपूर्व शक्ति और आनंद की अनुभूति मुझे होती रही है। और भाष्य भी पढ़े। गुरुदेवश्री के पढ़ाने का क्रम इतना चित्ताकर्षक था कि गम्भीर से गम्भीर विषय को वे सहज और सरल रूप से । मैंने गुरुदेवश्री से पूछा, गुरुदेव! आपके मंगल पाठ को सुनकर समझाते थे कि विषय सहज हृदयंगम हो जाता था। गुरुदेव की अनेक व्यक्ति स्वस्थ होते रहे हैं, अनेक व्यक्तियों की बाधाएँ दूर सबसे बड़ी विशेषता थी कि जो विषय यदि समझ में नहीं आता तो होती रही हैं, क्या आप उसके लिए संकल्प करते हैं ? गुरुदेवश्री ने दुबारा-तिबारा जिज्ञासा प्रस्तुत करते तो कभी भी उनके चेहरे पर । कहा, मैं किसी प्रकार का संकल्प नहीं करता और न किसी प्रकार रोष की रेखाएँ उभरती नहीं, वही मधुर मुस्कान, वही सहजता।। के चमत्कार की भावना ही मेरे मन में है, नवकार महामंत्र के उनका' मंतव्य था कि एक क्षण भी प्रमाद न करो, जीवन के प्रबल प्रभाव से यह सब कुछ सहज होता है, जितना जप करोगे अनमोल क्षण बीते जा रहे हैं, इन क्षणों का जितना सदुपयोग कर । उतना हा जप सटका उतना ही जप सिद्ध हो जाएगा। लो, वही तुम्हारे लिए सार्थक है। आलस्य जीवन का अभिशाप है। जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिः, जपात् सिर्द्धि न संशयः। प्रमाद से सदा बचो, तुम साधु बने हो, साधना करना तुम्हारे जीवन मेरा तो सभी साधु-साध्वियों से कहना है कि वे नवकार मेरा नोटी का संलक्ष्य है, यदि साधना नहीं करोगे तो यह गृहस्थ के टुकड़े । महामंत्र का जाप करें क्योंकि जाप से मन को अपूर्व समाधि मिलती हजम नहीं होंगे। वे एक दोहा भी फरमाया करते थे है, तनाव से मुक्ति मिलती है। कु E RDIG508621090000-003ERExposonalise only 50000814900 Doon jainelorary org,
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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