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________________ श्रद्धा का लहराता समन्दर २७ । Rao 2009 ऊपर भी जाते हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि जो ऊर्जा मानव को अर्थात् जहाँ सिकन्दर ने तुच्छ सुखों के लिए जीवन का परम धन मानवता से गिराकर दानव बनाती है, वही ऊर्जा सम्यग् उपयोग। दाँव पर लगा दिया वहीं महावीर ने परम सिद्धि की प्राप्ति के लिए पर इन्सान को उठाकर भगवान् भी बना देती है। सांसारिक तुच्छ-सुखों को एक ही ठोकर से ठुकरा दिया। इसी मैं, महावीर और सिकन्दर को, बुद्ध और हिटलर को, एक ही भेद-रेखा ने एक को शैतान तो एक को भगवान् बना दिया। खेल के दो खिलाड़ी मानता हूँ, किन्तु उनमें एक पूर्णतः पराजित हो अरे पगले! जिस जीवन और आत्मा के प्रति तू इतना उदासीन गया तो दूसरा सर्वोच्च विजेता, क्योंकि एक ने जहां जिस ऊर्जा से है, उसी में तो तेरा सुप्त परमात्मा करवटें ले रहा है। जरा अन्तर् विकास के चरमोत्कर्ष अर्थात् परमसिद्धि की सत्ता प्राप्त की, दूसरे में झांक तो सही, देख तो सही। जिस जीव को तू निरर्थक ने वहीं पतन की तलहटी को छुआ। दोनों का परिश्रम एक-सा ही । समझकर जी रहा है। उसमें छिपी संभावित ऊर्जा शक्ति को पहचान था, किन्तु एक ने जहां सच्चिदानन्द से स्नात परमानन्द के मनोहर तो सही। इसी बात पर पाश्चात्य विचारक लांगफेलो की एक उक्ति सुगन्धित सिद्धि-पुष्प प्राप्त किए तो दूसरे ने स्वयं को अनन्त पीड़ा । पर ध्यान जाता है। यथाके कांटों से बिंधा हुआ पाया। ऊर्जा एक ही पर परिणाम "मुझसे दुःखपूर्ण कविता में यह न कहो कि जीवन सत्य है, भिन्न-भिन्न! क्यों? जिस ऊर्जा के सदुपयोग से हमारे जीवन की जीवन महत्वपूर्ण है और मृत्यु उसका लक्ष्य नहीं है। तू मिट्टी है डाली पर सदाचार के पुष्प खिलते हैं, उसी ऊर्जा के दुरुपयोग से और मिट्टी में मिल जाएगा यह आत्मा के विषय में नहीं कहा व्यभिचार के कांटे भी निकलते हैं। तो इससे यह सिद्ध होता है कि गया है।" आदमी जब गिरने लगता है तो इतना गिर सकता है कि उसके आगे एक क्रूर राक्षस भी मात खा जाए और यदि अगर उठे तो उपरोक्त कथन को अक्षरशः सत्यता दी कालजयी महापुरुष, इतना उठ सकता है कि देवताओं को भी पीछे धकेल कर अरिहंत जैन-समाज के पुष्कर तीर्थ उपाध्यायप्रवर श्री पुष्कर मुनिजी और सिद्धों के उज्ज्वल इतिहास की कड़ी बन जाए। महाराज ने जिन्हें क्रूरकाल ने हमसे कुछ दिन पूर्व ही छीन लिया है, किन्तु मैं स्पष्ट देख रहा हूँ कि मृत्यु अपने किए दुष्कृत्य पर अब आप समझ गए होंगे कि महावीर और सिकन्दर के पास पश्चात्ताप कर रही है, क्योंकि उसे इस दिव्य आत्मा से वह सम्मान एक-सी ही ऊर्जा थी। दोनों ने ही युद्ध किए, दोनों ने ही । नहीं मिला जो उसे सामान्यतः सांसारिक मनुष्यों से प्राप्त होता अपने-अपने शत्रुओं को पराजित किया और लोगों के ही जीवन में आया है, अपितु इस कालजयी महापुरुष ने अपनी स्वागत भरी विजय-उत्सव आया, पर यह क्या दोनों के बीच एक ऐसी भेद-रेखा मीठी मुस्कार (संथारे) से मृत्यु की दिल दहलाने वाली क्रूर गर्जना खिंच गई जिसने दोनों को जुदा-जुदा कर दिया। को तर्जनी (अवमानना) ही दिखा दी। घोर अपमान-ऐसा अपमान दोनों ने ही युद्ध किया, किन्तु एक के युद्ध में खून की नदियाँ कि जिसकी मौत ने कभी कल्पना भी नहीं की थी, क्योंकि बहीं तो दूसरे ने अष्ट कर्मों की होली जलाई। एक ने जहाँ लाखों अधिकतर सांसारिक लोग मौत के नाम से थर-थर कांपने लगते हैं नारियों के सुहाग को उजाड़ा, लाखों माताओं को पुत्रहीन किया और जब मृत्यु लोगों को इस तरह कांपते हुए देखती है तथा भय और करोड़ों बच्चों को अनाथ बनाया, वहीं दूसरे से प्रेम, मैत्री, से पीठ किए भागते हुए देखती है या अपने सन्मुख मनुष्यों को अहिंसा की धर्ममयी गंगा प्रवाहित हुई। लाखों, करोड़ों को जीवन के कुछ और क्षणों के लिए हाथ जोड़े गिड़गिड़ाते हुए देखती अभयदान के माध्यम से छिनी हुई खुशियाँ मिलीं। जीता सिकन्दर । है तो उसे एक गहरा सकून मिलता है, तब गर्व से उसकी ग्रीवा भी और जीते महावीर भी और दोनों की ही जीत का जश्न मनाया अकड़ जाती है तथा स्वयं को उन क्षणों में वह ब्राह्मण की साम्राज्ञी गया, किन्तु जहाँ एक के जश्न में गुलाम और खुदगर्ज लोगों ने । समझने की भूल करने लगती है। गर्वीली मौत यह भी भूल जाती है हिस्सा लिया, वहीं दूसरे के बहारे-जश्न में प्रकृति का कण-कण । कि तेरे अपमान के लिए किसी वीर या महावीर की मुस्कान ही सम्मिलित था। जहाँ एक के जश्न में ढोलक, नगारे, नुपूर और काफी है। सत्य कहा गया है एक सूक्ति में, किपायल की झंकार में लाखों-करोड़ों की दबी वेदना कराह रही थी, “सर्वं हि महतां महत्!" DOD वहीं दूसरे के जश्न में तीनों लोकों का हर एक सदस्य एक अनूठी ROC000 खुशी के साथ शामिल था, क्योंकि जहाँ एक उत्सव मन तथा -बड़े लोगों की सभी बातें बड़ी होती हैं। आत्मविजेता का था। एक की जीत में बाहुबल, सैनिक-शक्ति व उपाध्यायप्रवर की वीर मुस्कान (संथारे) पर "दिनकर" जी कुशल-रणनीति का हाथ था और दूसरे ने यह विजय सात्विक की चार पंक्तियाँ याद आ रही हैं किआत्म-विश्वास, आत्म-पराक्रम व आत्म-संयम के सहयोग से प्राप्त "बड़ी कविता, वही जो इस भूमि को सुन्दर बनाती है। की थी। तो इस प्रकार दोनों के पास एक-सी ही ऊर्जा थी किन्तु सिकन्दर ने उस ऊर्जा को सांसारिक तुच्छ सुखों के लिए दाँव पर बड़ा वह ज्ञान, जिससे व्यर्थ की चिन्ता नहीं होती। लगा दिया मानो जैसे किसी नादान व्यक्ति ने कौवे को उड़ाने के बड़ा वह आदमी, जो जिन्दगी भर काम करता है। लिए बड़ी कठिनाई से प्राप्त चिन्तामणि रत्न को ही फैंक दिया हो, बड़ी वह रूह है, जो रोये बिना तन से निकलती है।" 400 3030500 506660000RDHAD%80-00-003-0D P3DPORT
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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