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________________ T0Uo 000000000000RhroPaseparee 2960865 । २६ . उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । वर्णन करने के लिए किसी महाग्रन्थ की आवश्यकता पड़ेगी। मेरे श्रद्धा के दो सुमन जैसा एक सामान्य सन्त आपश्री के महत्तम जीवन का आंकलन या -मदन मुनि 'पथिक' । वर्णन कर भी कैसे सकता है। हम तो आपके चरणों में अपनी विनम्र श्रद्धांजलि मात्र ही अर्पित करके स्वयं को धन्य अनुभव कर श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन समाज के जाने-माने, मूर्धन्य, सकते हैं। मनीषी सन्त शिरोमणियों में राजस्थान केसरी, पंडित प्रवर श्रद्धेय इस संसार में आलोचकों की कमी नहीं है। आलोचना करने में स्व. उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. सा. का नाम सदा अमर किसी का क्या जाता है? महान से महान व्यक्ति की भी आलोचना रहेगा। आपश्री ने अपने जीवनकाल में जैन समाज की जितनी की जा सकती है। और की जाती रही है। किन्तु श्रद्धेय उपाध्याय अहर्निश सेवा की, वह स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगी। विशेष रूप से श्री की आलोचना किया जाना प्रायः असंभव ही था। क्योंकि श्रमणसंघ की एकता और संगठन के लिए आपश्री ने जितना आपश्री के उज्ज्वल जीवन में तो सर्वत्र, सरलता, पवित्रता और अथक परिश्रम और पुरुषार्थ किया वह तो कभी भुलाया ही नहीं सौम्यता ही दृष्टिगोचर होती थी। फिर भी यदि कोई व्यक्ति दुर्भावना जा सकता। अनेक वरिष्ठ सन्तों के मन के तथा मत के भेदों को से ग्रसित होकर किसी विषय में आपश्री की कोई आलोचना करने आपश्री ने अपने सुलझे हुए मस्तिष्क तथा सौम्य व्यवहार से दूर का दुःसाहस करता था तो आपश्री कभी विचलित नहीं होते थे, किया था। कुपित नहीं होते थे, बुरा नहीं मानते थे, बल्कि अपने आलोचक से आपश्री का प्रकाण्ड पांडित्य अद्भुत था। ज्ञान, दर्शन और भी स्नेह ही करते थे। आपश्री के हृदय की यह उदारता भव्य थी, चारित्र की आपश्री साक्षात् मूर्ति थे। आपका व्यक्तित्व जितना भव्य, इसमें कोई सन्देह नहीं। तेजोमय एवं आकर्षक था उतना ही आपका अन्तमानस भी गहन, विशाल, सरल एवं शुद्ध था। आपश्री की वाणी में जादू था। वह मधुर थी और प्रभावकारी थी। उस वाणी के सम्मोहन से सभी श्रोता विमुग्ध हो जाया करते भगवान महावीर की वाणी प्रमाण है। भगवान ने फरमाया है थे। जब आपश्री प्रवचन करते थे तो श्रोताओं के बीच में इतनी कि सरलता साधना का महाप्राण है। उपाध्याय श्री सरलता में सने वार शान्ति व्याप्त रहती थी कि यदि एक सुई भी गिरे तो उसकी हुए थे। आपके सरल व्यक्तित्व के सम्मुख कैसा भी आग्रही या आवाज सुनाई दे जाय। इतनी मधुरवाणी तथा श्रेष्ठ प्रवचन शैली पूर्वाग्रही व्यक्ति सहज ही विनत हो जाता था। के धनी थे आप। धर्म के मूल विनय के विषय में तो यह बात है कि उपाध्याय संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि श्रद्धेय स्व. उपाध्याय श्री श्री मूर्तिमान विनय थे। अंहकार का कालानाग आपश्री के समीप जैसी महान विभूतियाँ इस धराधाम पर यदाकदा ही, शताब्दियों में कभी नहीं फटक पाया। श्रमणसंघ के इतने उच्च पद पर विराजकर । एकाध बार ही अवतरित होती हैं। उनको पाकर जैन समाज धन्य भी आप सदा विनयवान ही बने रहे। इससे आपके उत्कृष्ट जीवन हो गया था। आपश्री की शिष्य मण्डली भी ज्ञान और चारित्र की की स्पष्ट झलक प्राप्त हो जाती है। आराधना में सदैव अग्रणी ही रही है। और आज हम सहर्ष देख आपश्री का हृदय बहुत कोमल था। उसमें दया का सागर रहे हैं कि आपश्री के पंडित सुशिष्य श्रद्धेय देवेन्द्र मुनिजी शास्त्री लहराया करता था। दया की सरस धारा जिस साधक के जीवन में स्थानकवासी जैन श्रमणसंघ के महामहिम आचार्यसम्राट के सर्वोच्च प्रवाहित रहती है वह उन्नति के सोपान चढ़ता ही चला जाता है। पद पर सुशोभित हैं। यही बात उपाध्याय श्री के जीवन में सिद्ध हुई। किसी भी व्यक्ति के तनिक से भी दुःख को देखकर ही आपश्री का हृदय करुणा से मेरी लेखनी में सामर्थ्य नहीं है कि मैं श्रद्धेय उपाध्याय श्री के द्रवित हो जाया करता था। अपने जीवन-काल में साधु-मर्यादा के भव्य जीवन का अंकन कर पाऊँ। मैं तो आपश्री के चरण-कमलों में भीतर रहते हुए आपने हजारों व्यक्तियों के जीवन को दुःख से मुक्त अपनी विनययुक्त श्रद्धांजलि ही अर्पित कर पाना अपना परम किया था। सौभाग्य मानता हूँ। अपनी अटूट लगन तथा अविराम परिश्रम से आपश्री ने शिक्षा तथा ज्ञान के उच्चतम सोपानों का स्पर्श किया तथा अपनी साहित्य जैन पुष्कर तीर्थ धारा से मां भारती का भंडार भरा। आपश्री ने काव्य-कथा, गीत, -श्री रमणीक मुनि “शास्त्री" भजन, निबन्ध इत्यादि साहित्य की सभी विधाओं में एक के बाद एक सैंकड़ों ग्रन्थों की रचना की। (उपप्रवर्तक श्री प्रेमसुखजी महाराज के शिष्य) आपश्री के जीवन की विशेषताओं का वर्णन करने में लेखनी हम अपने जीवन को एक सीढ़ी से उपमित करते हैं कि जिस असमर्थ है। कोई समर्थ लेखनी हो भी तो उन सभी विशेषताओं का सीढ़ी के द्वारा हम नीचे उतरते हैं, उसी सीढ़ी के माध्यम से हम DA0000 09:29250 ONGC KOP 80.00RS 20316600000000000000000002ROYROI002502500
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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