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________________ ORG.0399.90.0000 100000565600 ६४६ जैन दर्शन के मूर्धन्य मनीषियों का यह स्पष्ट मंतव्य रहा है कि वही जीवन आवश्यक है जिससे संयमी जीवन की शुद्धि होती है, उस जीवन की सतत् रक्षा करनी चाहिए। इसके विपरीत जिस जीवन से संयमी जीवन धुंधला होता हो उस जीवन से तो मरना अच्छा है। इस दृष्टि से जैन दर्शन जीवन से इनकार करता है किन्तु प्रकाश करते हुए, संयम की सौरभ फैलाते हुए जीवन से इनकार नहीं करता। संलेखना व संथारे के द्वारा जो समाधिपूर्वक मरण होता है, उसमें और आत्महत्या में मौलिक अन्तर है। आत्महत्या वह व्यक्ति करता है जो परिस्थितियों से उत्पीड़ित है, उद्विग्न है, जिसकी मनोकामनाएँ पूर्ण नहीं हुई हैं। वह संघर्षों से ऊबकर जीवन से पलायन करना चाहता है या किसी से अपमान होने पर, कलह होने पर, आवश्यकताओं की पूर्ति न होने पर, पारस्परिक मनोमालिन्य होने पर, किसी के द्वारा तीखे व्यंग कसने पर, वह कुएं में कूदकर, समुद्र में गिरकर, पैट्रोल और तेल छिड़कर, ट्रेन के नीचे आकर, विष का प्रयोग कर फाँसी लगाकर या किसी शस्त्र से अपना जीवन समाप्त करना चाहता है। आत्महत्या में वीरता नहीं, किन्तु कायरता है, जीवन से भागने का प्रयास है। आत्महत्या के मूल में भय और कामनाएं रही हुई हैं। उसमें कषाय और वासना की तीव्रता हैउत्तेजना है। पर समाधिमरण में संघर्षों से साधक भयभीत नहीं होता। उसके मन में कषाय, वासना और इच्छाएं नहीं होतीं। जब साधक के सामने एक ओर देह और दूसरी ओर संयम रक्षा इन दो में से एक को चुनने का प्रश्न आता है तो साधक उस समय देह को नश्वर समझकर संयम की रक्षा के लिए संयम के पथ को अपनाता है। जीवन की सान्ध्य वेला में जब उसे मृत्यु सामने खड़ी दिखाई देती है, वह निर्भय होकर उस मृत्यु को स्वीकार करना चाहता है। उसकी स्वीकृति में अपूर्व प्रसन्नता होती है। वह सोचता है कि यह आत्मा अनन्तकाल से कर्मजाल में फँसी हुई है। उस जाल को तोड़ने का मुझे अपूर्व अवसर मिला है। वह सर्वतन्त्र स्वतंत्र होने के लिएअविनश्वर आनंद को प्राप्त करने के लिए शरीर को त्यागता है। समाधिमरण में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के द्वारा यह चिन्तन करता है कि कर्मबन्धन का मूल कारण मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व के कारण ही मैं देह और आत्मा को एक मानता रहा हूँ। जैसे चना और चने का छिलका पृथक् हैं वैसे ही आत्मा और देह पृथक् हैं। मिथ्यात्व से ही पर पदार्थों में रति होती है। ज्ञान और देह पृथक हैं। मिथ्यात्व से ही पर पदार्थों में रति होती है। ज्ञान आत्मा का निजगुण है। मिथ्यात्व के कारण वह निजगुण प्रकट नहीं हो सका है। आत्मा सही ज्ञान के अभाव में अनन्त काल से विश्व में परिभ्रमण कर रहा है। जब ज्ञान का पूर्ण निखार होगा तब मुझे केवलज्ञान प्राप्त होगा। इस प्रकार वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान से आत्मा और देह की पृथक्ता समझकर चारित्र और तप की आराधना करता है। उसकी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । आराधना में किसी भी प्रकार की आसक्ति और भय नहीं होता। इसलिए समाधिमरण आत्महत्या नहीं है। संलेखना की विशेषताएं संक्षेप में संलेखना व समाधिमरण की निम्न विशेषताएं हैं१. जैन धर्म की दृष्टि से शरीर और आत्मा ये दोनों पृथक पृथक् हैं। जैसे-मोसम्बी और उसके छिलके। २. आत्मा निश्चय नय की दृष्टि से पूर्ण विशुद्ध है, वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, अनंत आनंद से युक्त है। जो शरीर हमें प्राप्त हुआ है, उसका मूल कर्म है। कर्म के कारण ही पुनर्जन्म है, मृत्यु है, व्याधियाँ हैं। ३. दैनन्दिन जीवन में जो धार्मिक साधना कर तप पर बल दिया गया है, उसका मूल उद्देश्य है आत्मा में जो कर्ममैल है उस मैल को दूर करना। प्रश्न हो सकता है-कर्म आत्मा पर चिपके हुए हैं, फिर शरीर को कष्ट क्यों दिया जाए? उत्तर है-घृत में यदि मलिनता है तो उस मलिनता को नष्ट करने के लिए घृत तो तपाया जाता है, किन्तु घृत अकेला नहीं तपाया जा सकता, वह बरतन के माध्यम से ही तपाया जा सकता है। वैसे ही आत्मा के मैल को नष्ट करने के लिए शरीर को भी तपाया जाता है। यही कारण है कि संलेखना में कषाय के साथ तन को भी कृश किया जाता है। जब शरीर में वृद्धावस्था का प्रकोप हो, रुग्णता हो, अकाल आदि के कारण शरीर के नष्ट होने का प्रसंग उपस्थित हो, उस समय साधक को संलेखना व्रत ग्रहण कर आत्मभाव में स्थिर रहना चाहिए। संलेखना आत्मभाव में स्थिर रहने का महान् उपाय है। संलेखना व्रत ग्रहण करने वाले को पहले मृत्यु के संबंध में जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए। मृत्यु की जानकारी के लिए श्वेताम्बर आचार्यों ने अनेक उपाय बताये हैं। उपदेशमाला के आम्नाय आदि के द्वारा आयु का समय सरलता से जाना जा सकता है। ६. संलेखना करने वाले साधक का मन वासना से मुक्त हो, उसमें किसी भी प्रकार की दुर्भावना नहीं होनी चाहिए। ७. संलेखना करने से पूर्व जिनके साथ कभी भी और किसी भी प्रकार का वैमनस्य हुआ हो उनसे क्षमा याचना कर लेनी चाहिए और दूसरों को क्षमा प्रदान भी कर देनी चाहिए। ८. संलेखना में तनिक मात्र भी विषम भाव न हो, मन में समभाव की मंदाकिनी सतत् प्रवाहित रहे। 60 Relasagsirneg तुत i BSTEREST e NE00000080Pbog sex
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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