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________________ Page00AVAORATORE 000000000006065390 90.DIRDOI COID0062006 2003056os | संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ भगवती आराधना१२८ में भी इस प्रकार है, उन विज्ञों ने यह आक्षेप उठाया है कि समाधिमरण आत्महत्या के साधकों का विस्तार से वर्णन है। है। पर गहराई से चिन्तन करने पर यह स्पष्ट हुए बिना नहीं रहता 0 है कि समाधिमरण आत्म हत्या नहीं है। जिनका जीवन भौतिकता से संलेखना के पांच अतिचार ग्रसित है, जो जरा सा शारीरिक कष्ट सहन नहीं कर सकते, जिन्हें १. इहलोकाशंसा प्रयोग : धन, परिवार आदि इस लोक संबंधी आत्मोद्धार का परिज्ञान नहीं है, वे मृत्यु से भयभीत होते हैं, पर किसी वस्तु की आकांक्षा करना। जिन्हें आत्म तत्व का परिज्ञान है, जिन्हें दृढ़ विश्वास है कि आत्मा २. परलोकाशंसा प्रयोग : स्वर्ग-सुख आदि परलोक से संबंध । और देह दोनों पृथक हैं, उन्हें देहत्याग के समय किंचित् मात्र भी रखने वाली किसी बात की आकांक्षा करना। चिन्ता नहीं होती जैसे एक यात्री को सराय छोड़ते समय मन में ३. जीविताशंसा प्रयोग : जीवन की आकांक्षा करना। विचार नहीं आता। ४. मरणाशंसा प्रयोग : कष्टों से घबराकर शीघ्र मरने की _समाधिमरण में मरने की किंचित् मात्र भी इच्छा नहीं होती, आकांक्षा करना। इसलिए वह आत्महत्या नहीं है। समाधिमरण के समय जो आहारादि का परित्याग किया जाता है, उस परित्याग में मृत्यु की चाह नहीं ५. कामभोगाशंसा प्रयोग : अतृप्त कामनाओं की पूर्ति के रूप में होती, पर देह पोषण की इच्छा का अभाव होता है। आहार के काम-भोगों की आकांक्षा करना। परित्याग से मृत्यु हो तो सकती है, किन्तु उस साधक को मृत्यु की सावधानी रखने पर भी प्रमाद या अज्ञान के कारण जिन दोषों । इच्छा नहीं है। किसी व्यक्ति के शरीर में यदि कोई फोड़ा हो चुका के लगने की संभावना है उन्हें अतिचार कहा है। साधक इन दोषों । है, डॉ. उसकी शल्य चिकित्सा करता है। शल्य चिकित्सा से उसे से बचने का प्रयास करता है। अपार वेदना होती है। किन्तु वह शल्यचिकित्सा रुग्ण व्यक्ति को जैन परम्परा की तरह ही तथागत बुद्ध ने भी जीवन की तृष्णा कष्ट देने के लिए नहीं, अपितु उसके कष्ट के प्रतीकार के लिए है, और मृत्यु की इच्छा को अनैतिक माना है। बुद्ध की दृष्टि से वैसे ही संथारा-संलेखना की जो क्रिया है वह मृत्यु के लिए नहीं पर S E भवतृष्णा और विभवतृष्णा क्रमशः जीविताशा और मरणाशा का उसके प्रतीकार के लिए है।१३० द्योतक है। जब तक ये आशाएँ और तृष्णाएँ चिदाकाश में मण्डराती एक रुग्ण व्यक्ति है। डॉक्टर शल्य चिकित्सा के द्वारा उसकी रहती हैं, वहाँ तक पूर्ण नैतिकता नहीं आ सकती। इसलिए इनसे व्याधि को नष्ट करने का प्रयास करता है। शल्य चिकित्सा करते 2000 बचना आवश्यक है। समय डॉक्टर प्रबल प्रयास करता है कि रुग्ण व्यक्ति बच जाए। साधक को न जीने की इच्छा करनी चाहिए, न मरने की इच्छा उसके प्रयत्न के बावजूद भी यदि रुग्ण व्यक्ति मर जाता है तो Pldhana करनी चाहिए क्योंकि जीने की इच्छा में प्राणों के प्रति मोह डॉक्टर हत्यारा नहीं कहलाता। इसी तरह संथारा-संलेखना में होने 500 वाली मृत्यु आत्महत्या नहीं हो सकती। शल्य चिकित्सा दैहिक जीवन झलकता है तो मरने की इच्छा में जीने के प्रति अनिच्छा व्यक्त होती की सुरक्षा के लिए है और संलेखना-संथारा आध्यात्मिक जीवन की है। साधक को जीने और मरने के प्रति अनासक्त और निर्मोही होना चाहिए। एतदर्थ ही भगवान् महावीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है सुरक्षा के लिए है। साधक जीवन और मरण दोनों ही विकल्पों से मुक्त होकर अनासक्त कितने ही समालोचक जैन दर्शन पर आक्षेप लगाते हुए कहते बनकर रहे१२९ और सदा आत्मभाव में स्थित रहे। वर्तमान जीवन हैं कि जैन दर्शन जीवन से इकरार नहीं करता, वह जीवन से के कष्टों से मुक्त होने के लिए और स्वर्ग के रंगीन सुखों के प्राप्त इनकार करता है। पर उनकी यह समालोचना भ्रान्त है। जैन दर्शन करने की कमनीय कल्पना से जीवन रूपी डोरी को काटना एक जीवन के मिथ्यामोह से इनकार अवश्य करता है। उसका स्पष्ट प्रकार से आत्महत्या है। साधक के अन्तर्मानस में न लोभ का मन्तव्य है कि यदि जीवन जीने में कोई विशिष्ट लाभ है, तुम्हारा साम्राज्य होता है, न भय की विभीषिकाएं होती हैं, न मन में जीवन स्व और परहित की साधना के लिए उपयोगी है तो तुम्हारा निराशा के बादल मंडराते हैं और न आत्म ग्लानि ही होती है। वह कर्तव्य है कि सभी प्रकार से जीवन की सुरक्षा करो। श्रुतकेवली इन सभी द्वन्द्वों से विमुक्त होकर तथा निर्द्वन्द्व बनकर साधना करता भद्रबाहु ने स्पष्ट शब्दों में साधक को कहा-"तुम्हारा शरीर न है। उसके मन में न आहार के प्रति आसक्ति होती है और न रहेगा तो तुम संयम की साधना, तप की आराधना और मनो-मंथन शारीरिक विभूषा के प्रति ही। उसकी साधना एकान्त निर्जरा के किस प्रकार कर सकोगे? संयम साधना के लिए तुम्हें देह की लिए होती है। सुरक्षा का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। उसका प्रतिपालन आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है।"१३१ संयमी साधक के शरीर की समस्त संलेखना आत्महत्या नहीं है क्रियाएँ संयम के लिए हैं। जिस शरीर से संयम की विराधना होती जिन विज्ञों को समाधिमरण के संबंध में सही जानकारी नहीं हो, मन में संक्लेश पैदा होता हो वह जीवन किस काम का? Dow OS TO 200000000000 OER CANAROAD 22.00P.. Wedge
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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