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________________ saas.500000300300000000000000000 | जन-मंगल धर्म के चार चरण ५९१ | बुभुक्षितः।" तथा "नाप्राप्तातीतकालं वा हीनाधिकमथापि वा।" । खाने वाला व्यक्ति कभी भी उदर सम्बन्धी विकारों-परेशानियों से अर्थात् जिसे अच्छी भूख लगी हो ऐसा बुभुक्षित व्यक्ति उचित मात्रा । पीड़ित नहीं होता और वह स्वस्थ रहता हुआ पूर्ण सुखायु का तुर पूर्वक आहार ग्रहण करे तथा समय से पूर्व एवं समय बीत जाने के उपभोग करता है। बाद भोजन नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त बिल्कुल हीन मात्रा जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि हमारे द्वारा खाए गए या अत्यधिक मात्रा में भी भोजन नहीं करना चाहिए। मात्रा पूर्वक आहार का प्रभाव हमारे मन पर पड़ता है। कम खाने वाला a ad आहार लेने से जो लाभ होते हैं उनका प्रतिपादन आयुर्वेद के व्यक्ति आत्म सन्तोषी होता है। उसकी महत्वाकांक्षाएँ अधिक नहीं 8000 आचार्य चरक ने निम्न प्रकार से किया है: बढ़ पाती हैं। उसे जितना मिलता है वह उतने में ही संतुष्ट रहता 68 "मात्रावद् ह्यशनमशितमनुपहत्य प्रकृति बलवर्णसुखायुषा है। यही कारण है कि उसकी धैर्यशक्ति और सहन शक्ति बराबर योजयत्युपयोक्तारमवश्यमिति।" बनी रहती है और वह उसे कभी असन्तुलित या अनियन्त्रित नहीं 90020 अर्थात् मात्रा पूर्वक ग्रहण किया गया आहार, आहार ग्रहण होने देती। करने वाले व्यक्ति की प्रकृति को हानि (बाधा) पहुँचाए बिना अधिक खाना शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक स्वास्थ्य के 500 अवश्य ही उसे बल, वर्ण, सुख एवं पुर्णायु से युक्त करता है। | लिए हितकारी नहीं होता है। अधिक खाने से शरीर में भारीपन, आहार के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण ज्ञातव्य तथ्य यह भी है। बुद्धि में ठसता और मन में तामस भव उत्पन्न होता है जिसका कि जब हम इस बात के लिए सचेष्ट और सावधान हैं कि हम क्या प्रभाव इन्द्रियों पर पड़ता है। परिणामतः मनुष्य में आलस्य औरत खाएँ? तो हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि हम कितना खाएं निद्रा उत्पन्न होती है। ये दोनों भाव मनुष्य की सहज एवं स्वाभाविक और कब खाएँ? इसका समाधान करते हुए आचार्य चरक कहते वृत्ति में बाधक होते हैं। इससे धर्माचरण तथा अन्य आचार-व्यवहार हैं-"हिताशी स्यान्मिताशी स्यात्।" अर्थात् हितकारी भोजन करने में भी व्यवधान उत्पन्न होता है। आत्महित चिन्तन में लगे हुए969 वाला और परिमित याने सीमित भोजन करने वाला होना चाहिए। व्यक्तियों के लिए सदैव जागरूक बने रहना आवश्यक है, ताकि इसका आशय यह है कि लघु, सुपाच्य एवं सुस्वादु वह भोजन उनके स्वाध्याय, धर्मानुचिन्तन एवं धर्माचरण में कोई व्यवधान 30 करना चाहिए जो मनुष्य की अपनी प्रकृति के अनुकूल हो। इसके उत्पन्न न हो। यह तब ही सम्भव है जब वह अल्पाहारी हो। भूख से 500 साथ ही परिमित मात्रा याने सीमित प्रमाण में आहार सेवन करना कम खाना एक ओर जहाँ विभिन्न रोगों के आक्रमण से शरीर की जय चाहिए। परिमित परिमाण में खाने से शरीर सदा स्वस्थ एवं निरोग रक्षा करता है वहाँ दूसरी ओर मानसिक भावों को दूषित होने से तो बना ही रहता है, मन में प्रसन्नता और बुद्धि में निर्मलता रहती बचाता है और बौद्धिक विचारों में विकृति नहीं आने देता। आहार तक है। व्यवहार में सामान्यतः देखा गया है कि कुशाग्र या तीव्र बुद्धि के सम्बन्ध में एक मूलभूत सामान्य नियम यह है कि “खाना जीने 8000 वाले लोग सीमित मात्रा में ही आहार लेते हैं। आत्महित चिन्तन में के लिए है, न कि जीना खाने के लिए।" आज स्थिति इससे सर्वथा l लगे हुए धार्मिक वृत्ति वाले लोग भी केवल अपने शरीर निर्वाह के भिन्न है। हम में से अधिकांश लोग खाने के लिए जीते हैं। यही 88820 लिए अल्प प्रमाण में ही आहार लेते हैं। कारण है कि वे जरूरत से अधिक खाते हैं और ऐसा करके वे 3936 अपने स्वास्थ्य के प्रति गैर जिम्मेदार रहते हुए अनेक समस्याएँ Dacos - हम जो भी कुछ खाते हैं वह हमारी पाचन शक्ति को उत्पन्न कर लेते हैं। प्रभावित करता है। उस खाए हुए आहार का परिपाक होने के बाद जब वह आहार रस में परिवर्तित होता है तो वह रस सम्पूर्ण यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि शरीर की समस्त क्रियाएँ ऊर्जा व शरीर में घूमता हुआ प्रत्येक अंग, अवयव, मस्तिष्क आदि के के द्वारा उत्पन्न होती हैं। उस ऊर्जा की पूर्ति ग्लूकोज और प्राणवायु सूक्ष्मांशों में पहुँचता है और वे सभी अंगावयव उससे प्रभावित होते (ऑक्सीजन) इन दो स्रोतों से होती है। सामान्यतः जब उचित हैं। लगातार अधिक खाते रहने से कालान्तर में पाचकाग्नि मन्द हो । परिमाण में आहार लिया जाता है तो उसके पाचन के लिए शरीर जाती है जिससे अल्प मात्रा में खाए हुए अन्न का पचाना भी दुष्कर । में विद्यमान (पाचन संस्थान में स्थित) ऊर्जा से काम चल जाता है, हो जाता है। परिणाम स्वरूप अग्निमांद्य, अरुचि, अतिसार आदि किन्तु अधिक मात्रा में आहार ग्रहण किए जाने की स्थिति मेंER बीमारियों का शिकार होना पड़ता है। यदि लगातार यही स्थिति अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता होती है जिसकी पूर्ति शरीरगत बनी रहती है तो शरीर के लिए आवश्यक रस-रक्तादि धातुओं का अन्य संस्थान या केन्द्र से की जाती है। सामान्यतः आहार पाचन के निर्माण, प्रभावित होता है और शरीर धीरे-धीरे बलहीन एवं लिए जो ऊर्जा काम में आती है वह विद्युत ऊर्जा के रूप में जानी का निस्तेज होता जाता है। अतः सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि जाती है, जबकि मस्तिष्कीय क्रिया-कलापों के काम में आने वाली SUSD अग्निबल (पाचन शक्ति) की रक्षा की जाए। इसके लिए यह ऊर्जा प्राण-ऊर्जा होती है। अधिक मात्रा में खाए गए आहार के ED आवश्यक है कि हित और मित अर्थात् हमारे लिए जो हितकारी है । पाचन के लिए अतिरिक्त विद्युत ऊर्जा की आवश्यकता होने पर और उचित परिमाण या मात्रा में हो उसे ग्रहण किया जाए। कम | उसकी पूर्ति मस्तिष्कीय विद्युत ऊर्जा से होती है जिससे मस्तिष्कीयात
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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