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________________ AMACHAR PLAN उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । ही है, वायु प्रदूषण भी कम नहीं होता। स्फोटक ध्वनि से बड़े-बड़े वनस्पतिजन्य हिंसा और प्रदूषण पत्थरों को तोड़ा जा सकता है तो मनुष्यों और पशुओं के कान के वनस्पतिकाय की हिंसा के नानाविध दुष्परिणाम अतीव स्पष्ट पर्दे न फटें, यह असंभव है। यातायात की खड़खड़ाहट, विमानों का है। एक ओर उससे प्राणवायु (ऑक्सीजन) का नाश हो रहा है, कर्णभेदी स्वर, रेडियो आदि का कर्ण कटु स्वर, कल-कारखानों दूसरी ओर भूक्षरण तथा भूस्खलन को बढ़ावा मिल रहा है। और मशीनों की सतत धड़धड़ाहट अत्यधिक कोलाहल, विभिन्न पेड़-पौधे आदि सब वनस्पतिजन्य हैं। इनमें जीवन का अस्तित्व वस्तुओं के घर्षण से होने वाली आवाज तथा कम्पन आदि कितने जगदीशचन्द्र बोस आदि जैव वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया है। ही प्रकार की ध्वनियाँ हमारे कानों पर आक्रमण करती हैं। इनकों हर्ष-शोक या सुख-दुःख का संवेदन होता है। इसीलिए अमेरिका के वातावरण-संरक्षक विभाग ने अपनी रिपोर्ट में कहा भगवान् महावीर ने वनस्पतिकाय-संयम बताया है। वृक्षों को है-'अकेले अमेरिका में तीव्र आवाज से ४ करोड़ लोगों के आरोग्य काटकर उनसे आजीविका करने (वणकम्मे) तथा वृक्षों से लकड़ियाँ को धक्का पहुंचा है। कार्यालयों या घरों में शान्त जीवन बिताने वाले काटकर कोयले बनाने के धंधे (इंगालकामे) एवं बड़े-बड़े वृक्षों के अन्य ४ करोड़ लोगों की कार्यक्षमता में कमी आई है। लगभग २५ लट्ठों को काट-छील कर विविध गाड़ियाँ बनाने और बेचने के धंधे लाख लोग कर्ण यंत्र के प्रयोग के बिना कानों से सुनने में असमर्थ हो गए हैं। (साड़ी कम्मे) की सद्गृहस्थ के लिए सख्त मनाही ही की है। वनों प्राकृतिक संपदा को नष्ट करना भयंकर अपराध है उससे वृष्टि तो असह्य ध्वनि का प्रभाव केवल कानों पर ही नहीं, सारे शरीर कम होती ही है, मानव एवं पशुओं के जीवन भी प्रकृति से बहुत पर पड़ता है। श्वसन-प्रणाली, पाचन-प्रणाली, प्रजनन क्षमता तथा दूर हो जाते हैं, कृत्रिम बन जाते हैं। पर्यावरण-सन्तुलन को बनाये मज्जा-संस्थान पर भी इसका गहरा असर पड़ता है। सिर दर्द, रखने में वनस्पतियों और जीव-जन्तुओं का बहुत बड़ा हाथ है। आँखों में घाव, स्नाय दौर्बल्य आदि बीमारियाँ भी इसी की देन हैं। परन्तु मनुष्य आज रासायनिक खाद एवं जहरीली दवाइयाँ डालकर श्रवण शक्ति तो मन्द पड़ती ही है। अधिकतर झगड़े, दंगे-फिसाद का। जमीन को अधिक उर्वरा बनाने का स्वप्न देखता है, मगर इससे मूल कारण तीव्र एवं कर्कश ध्वनि है। इसीलिए भगवान् महावीर ने बहुत से कीड़े मर जाते हैं, तथा जो अन्नादि पैदा होता है, वह भी 'वइसंजमे' (वचनसंयम) वचनगुप्ति, विकथा-त्याग, भाषासमिति कभी-कभी विषाक्त एवं सत्त्वहीन हो जाता है। इसीलिए भगवान् (भाषा की सम्यक् प्रवृत्ति) आदि पर अत्यधिक जोर दिया है। महावीर ने कहा-"जो लोग नाना पकार के शास्त्रों (खाट विषाक्त आचारांगसूत्र में स्पष्ट कहा है-जं सम्मं ति पासहा तं मोणं ति रसायन, कीटनाशक दवा आदि) से वनस्पतिकाय के जीवों का पासहा।'१२ जो सत्व को जानता है, वही मौन का महत्त्व जानता है। समारम्भ करते हैं, वे उसके आश्रित नाना प्रकार के जीवों का भगवान् महावीर ने इसी दृष्टि से वायुकायिक हिंसा से बचने का । समारम्भ करते हैं।१३ अतः वनस्पति से होने वाले प्रदूषण एवं उपदेश दिया था। पर्यावरण-असंतुलन से बचने का प्रयत्न करना चाहिए। सन्दर्भ स्थल सन्दर्भ स्थल १. जीवकाय संजमे अजीवकाय संजमे -समवायांग समवाय २ २. भगवद्गीता ३/११ ३. 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्।' -तत्त्वार्थ सूत्र ५/२१ ४. स्थानांग सूत्र, स्थान. ५/सू.४४७ ५. पुढवीकायसंजमे अपकायसंजमे, तेउकायसंजमे, वाउकायसंजमे, वणस्सइ-काय संजमे, बेइंदिय-संजमे, तेइंदिय-संजमे, चउरिदिय-संजमे, पंचिदिय-संजमे अजीवकाय-संजमे, पेहासंजमे, उवेहा-संजमे, अवहट्ट संजमे, पमज्जणासंजमे, मणसंजमे, बइ संजमे, काय संजमे। -समवायांग सूत्र १७ वां समवाय ६. देखें आवश्यकसूत्र में १५ कर्मादानों का पाठ ७. "तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं पुढवि-सत्थं समारंभेज्जा, नेवन्नेहिं पुढवि-सत्थं समारंभोवेज्जा, नेवण्णे पुढविसत्थं समारभते समणुजाणेज्जा।" -आचारांग १/१/३४ ८. "जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढवि-कम्म-समारंभेणं पुढवि-सत्थं समारंभेमाणे अण्णेवऽणेगरूवे पाणे विहिंसई।" -आचारांगसूत्र १/१/२७ ९. "जे लोग अब्भाइक्खति, से अत्ताणं अब्भाइक्खति।" -आचारांग १/१/४/३२ १०. “इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहि अगणिकाय-समारंभेणं अगणि-सत्थं समारंभेमाणे अण्णेवऽणेगरूवे पाणे विहिंसति।" "संति पाणा पुढवि-णिस्सिता तण-णिस्सिता, पत्त-णिस्सिता कट्ठणिस्सिता गोमय-णिस्सिता कयवर-णिस्सिता, सांते संपातिमा पाणा आहच्च संपयंति च। _ -आचारांग १/१/४/३६-३७ "जमिण विरूवरूवेहि सत्थेहिं उदय-कम्म-समारंभेणं उदयसत्थं समारंभमाणे अण्णेऽणेगरूवं पाणेविहिंसति।... संतिपाणाउदयणिस्सिया जीवा अणेगा।" -आचारांग १/१/२/२५ १२. वही, १/१/४/५१ १३. आचारांगसूत्र १/१/५/४४ ११. Detecाण गमा DANCE SDODO.AGO 189aggapps HoPopDODDO TEDwenetory sog 30067006 DOOOOPINE RON 2:00:00:00ROORDSATTA DISEDIODOSE
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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