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________________ 999960600000000000 ở Sa SaloPAROOPalak 200900200. 0 ADAC OODOOOD656634060992 Pane-9000000RatopRatoPos 2 040 जन-मंगल धर्म के चार चरण ५५७ पर्यावरण रक्षा और अहिंसा htakoADDOCU Halc00000 -आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि पर्यावरण संतुलन और पर्यावरण सुरक्षा का प्रश्न आज प्रबुद्ध जैन दर्शन के अनुसार इस पृथ्वी का आधार है घनवात। जनों और विज्ञानवेत्ताओ के लिए ही नहीं, जनसामान्य के लिए भी घनवात आधारित है धनोदधि पर और वह आधारित है तनुवात चिन्तनीय विषय हो गया है। सर्वत्र इस सुरक्षा के लिए प्रयत्नशीलता पर। यही पर्यावरण का रचना-विधान है, जो विज्ञान से भी मेल दृष्टिगत होती है। इस की सुरक्षा के लिए, प्रदूषण निरोध के लिए खाता है। पृथ्वीतल से ऊपर २० मील की दूरी तक से १000 व्यापक स्तर पर जन चेतना विकसित की जा रही है। मील तक वायुमण्डल है। उच्चतम भाग लगभग ७00 मील मोटीई यह प्रश्न है ही इतना महत्वपूर्ण। इसकी अनदेखी करना आत्म में है जो एक्सोस्फेयर के नाम से जाना जाता है जो वायुमण्डल का हनन करना ही सिद्ध होगा। यह भी सत्य है कि मानव सृष्टि को अत्यन्त पतला-विरल भाग है। इससे नीचे लगभग २५० मील की महाविनाश से बचाने के लिए पर्यावरण की सुरक्षा अनिवार्य है परत कुछ मोटी है, वायु वहाँ कुछ सघन हो गयी है, इसे और इस की गम्भीरता से अवगत आज की मानव जाति इस दिशा एग्नोस्फेयर कहा जाता है। सबसे नीचे का भाग ओजोनस्फेयर में सचेष्ट भी हो गई है। कहलाता है जो पृथ्वी में २० मील ऊपर से ५० मील की मोटाई में है। ये ही जैन दर्शन में वर्णित तीन वात क्रमशः तनुवात, पर्यावरण की सुरक्षा के लिए अहिंसा अमोघ साधन सिद्ध घनोदधिवात और घनवात हैं। होगी-इस विचार में रंचमात्र भी संदेह नहीं किया जा सकता है। यह पर्यावरण है क्या? इससे मानव जाति को अस्तित्व के संकट प्राणिजगत का रक्षा आवरण यही ओजोनस्पेयर है। इस पर्त में का सामना क्यों करना पड़ रहा है? अहिंसक उपायों से इस संकट ऑक्सीजन पर्याप्त मात्रा में है जो प्राणियों को सांस लेने के लिए को कैसे लुप्त किया जा सकता है? ये ही इस लेख के विचारणीय अनिवार्य होती है। यह ऑक्सीजन गैस जब अत्यन्त सघन रूप में प्रमुख विषय हैं। होती है तो ओजोन कहलाती है। आज का जो पर्यावरण संकट है वह इसी ओजोन पर्त की दुरवस्था के कारण है। पृथ्वी को यह पर्यावरण क्या है? बाहर के प्रहारों से बचाने वाला कवच है-इसे सुदृढ़ और सम्पूर्ण परि एवं आवरण-इन दो शब्दों के योग से बने यौगिक शब्द पृथ्वी को सुरक्षित रखकर ही मनुष्य स्वयं अपनी जाति और प्राणी पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ है-भली प्रकार ढकने का साधन, सभी वर्ग को सुरक्षित रख सकता है। ओर से घेरे रखने वाला। इसका अर्थ है, यह वह घेरा है जो पृथ्वी ओजोन पर्त : अस्तित्व का संकट को सभी ओर से आवृत, आच्छादित किए हुए है और यह आच्छादन भी सप्रयोजन है। इस आवरण से पृथ्वीतल की बाह्य इस ओजोन पर्त का हम पर बड़ा उपकार है। सूर्य तो प्रचण्ड संकटों से सुरक्षा होती है। अग्नि का विशाल गोला है। पृथ्वी के समीप आते आते भी उसकी दाहक क्षमता इतनी अधिक रहती है कि वह पृथ्वी पर संकट लाने वास्तव में पर्यावरण विभिन्न गैसों की एक संतुलित संरचना है। के लिए पर्याप्त है। सूर्य-किरणों में कोस्मिक, अल्ट्रा-वायेलेट आदि इस संतुलन में ही पर्यावरण की रक्षक क्षमता निहित है और इसके अनेक प्रचण्ड विघातक किरणें हैं जो पृथ्वी पर सीधी पहुँचें तो असंतुलन या प्रदूषित होने में ही संकट है। इस संकट की स्थिति को प्राणियों का सर्वनाश हो जाए। ओजोन इन्हें परावर्तित कर पुनः समझने की दिशा में अग्रसर होने के लिए यह अपेक्षित हो जाता है पृथ्वी से दूरतर कर देता है। अस्तित्व के इस संकट में पृथ्वी तल कि पर्यावरण की संरचना का ज्ञान कर लिया जाए, यह जान लिया जाए कि यह किस संकट से बचाने की क्षमता किस विशेषता के के प्राणियों के लिए ओजोनस्फेयर एक सक्षम सुरक्षक बना हुआ है। यदि यह न होता तो प्राणियों का अस्तित्व भी नहीं, होता। यही नहीं कारण रखता है। यदि अब भी ओजोन दुर्बल होने लगे तो अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो यह विशेष रूप से ध्यातव्य है कि मात्र पृथ्वी ही एक ऐसा ग्रह सकती हैं जिनमें से कुछ तो अत्यन्त विषम भी हो सकती हैं। है जिस पर प्राणियों का अस्तित्व है। बृहस्पति, मंगल, शुक्र, चन्द्रमा यह कवच क्षतिग्रस्त हो जाए तो सूर्य की किरणें सीधी आदि कहीं भी जीवन के चिन्ह नहीं मिले हैं। इसका कारण यह है कि अन्य ग्रह उपग्रहों का अपना पर्यावरण नहीं है, केवल पृथ्वी के पहुंचकर पृथ्वी पर प्रचण्डतम ताप की सृष्टि कर देंगी। विशाल हिमाच्छादित क्षेत्रों का हिम द्रवित हो जाएगा यह अपार जल राशि साथ यह विशिष्ट सुविधा संलग्न है। आज जब प्राणों के आधार इस पर्यावरण के दुर्बल होने के कारण संकट उत्पन्न हो गया है तो प्रलय की स्थिति उत्पन्न कर सकती है। वह प्राणियों के लिए ही है और प्राणियों में श्रेष्ठ मनुष्य ही इसके कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि प्राणियों के उपयोगार्थ समुचित लिए सर्वाधिक चिन्तित भी है। मात्रा में जल की उपस्थिति पृथ्वी पर है-उस भयंकर ताप से वह एएलएनय डायनाएर 20300:00 0.055000.00 0.00Pheohd 000.0016 Dohtoo.200000000000 Passpons.500.09 . D.SGDangaPOSED 6.60000000000000000002tophtohto000 fall 096. 00 DOFES
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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