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________________ अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर जप योग साधना विश्व के समस्त विवेकशील जीव इस संसार के आवागमन से मुक्त होना चाहते हैं। आवागमन से मुक्त होने का एक मात्र साधन है 'स्व' स्वरूप में रमणता, स्थिरता । जिस-जिस उपाय से चित्त का 'स्व' स्वरूप के साथ योग होता हैं उनको योग कहते हैं। पू. हरिभद्र सूरिजी ने लिखा है-मुक्खेण जोयणाओ जोगो' जिन साधनों से मोक्ष का योग होता है उनको योग कहते हैं। योग एक ही है किन्तु उसके साधन असंख्य है। मुख्यतः योग ३ भागों में विभक्त किये जा सकते हैं - १. ज्ञान योग, (२) कर्म योग, (३) भक्ति योग। मोटे रूप में तीनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं, सहयोगी हैं। ज्ञान योग में ज्ञान सेनापति और कर्म एवं भक्ति सैनिक हैं: कर्म योग में कर्म सेनापति और ज्ञान और भक्ति सैनिक हैं; भक्ति योग में भक्ति सेनापति है और ज्ञान और कर्म सैनिक हैं। इन तीनों योगों की असंख्य पर्याय है। मुख्यतः निम्नलिखित हैं (१) ज्ञान योग के पर्याय- १. ब्रह्म योग, २. अक्षर ब्रह्म योग, ३. शब्द योग, ४. ज्ञान योग, ५. सांख्य योग, ६. राज योग, ७. पूर्व योग, ८. अष्टाङ्ग योग ९. अमनस्क योग, १०. असंप्रज्ञात योग, ११. निर्बीज योग, १२. निर्विकल्प योग, १३. अचेतन समाधि योग, १४ मनोनिग्रह इत्यादि । (२) कर्म योग के पर्याय- १. सन्यास योग, २. वृद्धि योग, ३. संप्रज्ञात योग, ४. सविकल्प योग ५. हठ योग, ६. हंस योग, ७, सिद्ध योग, ८. क्रिया योग ९. तारक योग १०. प्राणोपासना योग, ११. सहज योग, १२. शक्तिपात, १३. तन्त्र योग, १४. बिन्दु योग, १५. शिव योग, १६. शक्ति योग, १७. कुण्डलिनी योग, १८. पाशुपत योग, १९. कर्म योग, २०. निष्काम कर्म योग, २१. इन्द्रिय निग्रह इत्यादि। ३. (३) भक्ति योग- १. कर्म समर्पण योग, २. चेतन समाधि, महाभाव, ४. भक्ति योग, ५. प्रेम योग, ६. प्रपत्ति योग, ७. शरणागति योग, ८. ईश्वर प्रणिधान योग, ९. अनुग्रह योग, १०. मन्त्र योग, ११. नाद योग, १२. सुरत-शब्द योग, १३ : लय योग, १४. जप योग, १५. पातिव्रत योग इत्यादि नाम भक्ति योग के पर्याय हैं। जैन पम्परा के अनुसार योग के हेतु मन, वचन और काया है। मन ही मनुष्य के बन्ध और मोक्ष का कारण है। जैन परम्परा में मन को मुख्य मानकर ज्ञान योग को विशेष महत्व दिया है। मन के लिये ज्ञान योग की प्रमुखता है; काय योग के लिये कर्म योग की प्रमुखता है और वचन योग के लिये भक्ति योग की प्रमुखता है। age ५०५ -विमल कुमार चौरड़िया 'जप' भक्ति योग का ही अंग है, बहिर् आत्मा से अन्तरात्मा में जाने का साधन है। जैन धर्म की अपेक्षा से नमस्कार महामंत्र के जप को ही लक्ष्य में रखकर यहाँ वर्णन करना उचित होगा। जप करने के पूर्व सिद्धि के लिये कुछ प्रयोजनभूत ज्ञान आवश्यक है , (१) पंच परमेष्ठी भगवन्तों का स्वरूप गुरु के पास से भली प्रकार समझना चाहिये। (२) नमस्कार मंत्र का चिन्तन, मनन कर आत्मसात् कर लेना चाहिए। (३) जैसे किसी अच्छे परिचित का नाम लेते ही उसकी छवि सामने आ जाती है, उसका समग्र स्वरूप ( गुण, दोष आदि) ख्याल में आ जाता है वैसे ही जप करते समय मंत्र के अक्षरों का अर्थ, पंच परमेष्ठि का स्वरूप मन के सामने प्रगट हो जाना चाहिए। (४) परमेष्ठि भगवन्तों का हम पर कितना उपकार है, उनके उपकार से या उनके ऋण से हम कितने दबे हुए हैं उसका ध्यान बराबर रखना चाहिए। (५) परमेष्ठि भगवन्तों के आलम्बन के बिना भूतकाल में अनन्त भव भ्रमण करने पड़े, उनका अन्त इन्हीं के अवलम्बन से आ रहा है इसकी प्रसन्नता होना चाहिये। (६) मानस जप करते समय काया और वस्त्र की शुद्धि के साथ-साथ मन और वाणी का पूर्ण मौन रखना चाहिए। (७) जप का उद्देश्य पहले से ही स्पष्ट और निश्चित कर लेना चाहिए। (८) मोक्ष प्राप्त हो, मोक्ष प्राप्त हो, सब जीवों का हित हो, सब जीव परमात्मा के शासन में रुचिवन्त हों... भव्यात्माओं को मुक्ति प्राप्त हो, संघ का कल्याण हो, विषय कषाय की परवशता से मुक्ति मिले, मैत्री आदि भावनाओं से मेरा अंतःकरण सदा सुवासित रहे यह भाव हो । (९) जप करते समय कदाचित् चित्त वृत्ति चंचल रहे तो निम्नलिखित वाक्यों में से अथवा दूसरी अच्छी विचारणा में अपने चित्त को लगायें जगत के जीव सुखी हों, कोई जीव पाप न करे, सबको सद्बुद्धि मिले-बोधि बीज प्राप्त हो... आदि । (90) राग द्वेष में चित्त को नहीं लगाना, समता युक्त रखना।
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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