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________________ ५०४ फल-जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि धर्मध्यान मोक्षमार्ग का प्रथम सोपान है। धर्मध्यान की साधना से लेश्याओं की शुद्धि, वैराग्य की प्राप्ति और शुक्लध्यान की योग्यता प्राप्त होती है और शुक्लध्यान के माध्यम से साधक मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। शुक्ल ध्यान - लेश्याध्यान के प्रसंग में शुक्ल लेश्या ध्यान की चर्चा हुई है। शुक्लध्यान और शुक्ल लेश्याध्यान भिन्न होते हुए भी स्थिति की दृष्टि से दोनों समान हैं। शुक्ल लेश्या ध्यान में शुभतम, अक्लिष्टतम कर्मसंस्कारों का ध्यान किया जाता है, जबकि शुक्लध्यान में साधक विषयहीनता की ओर क्रमशः उन्मुख होता है, जो मन की शुभतम स्थिति है। शुक्लध्यान का अधिकारी सर्वसामान्य साधक नहीं होता। चित्त में जब तक कषाय का लेश भी है, तब तक शुक्लध्यान संभव नहीं है । निरन्तर साधना से जब चित्तगत कषाय क्षीण हो जाते हैं, साधक साधना के माध्यम से आरोह क्रम से बारहवें गुणस्थान (क्षीणकषाय) में पहुँच जाता है, तब वह शुक्लध्यान का अधिकारी होता है उस अवस्था में उसमें अव्यथ असम्मोह, विवेक और व्युत्सर्ग लिङ्ग व्यक्त होते हैं। वह सभी प्रकार के परीषों को निर्विकार भाव से सहन करता है ( अव्यथ) । किसी प्रकार के आकर्षण उसकी श्रद्धा को विचलित नहीं कर पाते (असम्मोह)। | उसका तत्त्व विषयक विवेक इतना सूक्ष्म होता है कि जीव-अजीव आदि के सम्बन्ध में उसके चित्त में भ्रम और सन्देह का लेश भी नहीं रहता (विवेक)। उसमें किसी प्रकार की आसक्ति या कामना नहीं रहती भोगेच्छा, यश की इच्छा उसके पास भी नहीं फटकती (व्युत्सर्ग)। उसके लिए सभी प्रकार के आकर्षण तृणवत् होते हैं। वह वीतराग होता है। क्षमा, मार्दव (नम्रता), आर्जव (निष्कपटता) और लोभ आदि कषायों से मुक्ति उसके आलम्बन होते हैं। शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ हैं अर्थात् शुक्लध्यान करने वाला योगी निम्नलिखित चार विषयों का चिन्तन मनन करता हैअनन्तवर्त्तितानुपेक्षा विपरिणामानुप्रेक्षा, अशुभानुपेक्षा अशुभापेक्षा और अपायानुप्रेक्षा । अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा का तात्पर्य है काल की दृष्टि से भवपरम्परा (संसार) अनन्तता का चिन्तन विपरिणामानुप्रेक्षा का अर्थ है समस्त वस्तुओं की परिणमनशीलता का चिन्तन क्योंकि वह अनुभव करने लगता है कि कोई भी पदार्थ न एकान्ततः शुभ है, न अशुभ अतः उनके प्रति उसकी हेच उपादेय बुद्धि समाप्त हो जाती है। विश्व के समस्त पदार्थों के प्रति वह उदासीन अर्थात् आसक्तिरहित हो जाता है। अशुभानुप्रेक्षा के फलस्वरूप वह संसार के अशुभ रूप का साक्षात्कार कर लेता है, फलतः निर्वेदभाव में उत्तरोत्तर प्रबल हो जाता है। अपायानुप्रेक्षा में वह समस्त शुभ और अशुभ माने जाने वाले विषयों (पदार्थों) और व्यवहारों में अपाय १. समभ्यसेत्तथा ध्यानं घटिकाः षष्टिमेव च । वायुं निरुध्य चाकाशे देवतामिष्टदामिति ॥ सगुणध्यानमेवं स्यादणिमादि गुणप्रदम् । दिनद्वादशकेनैव समाधिं समवाप्नुयात् ॥ - योगतत्त्व १०४ - योगतत्त्व १०५-१०६ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ अर्थात् दोष का दर्शन करता है, फलतः आनव से पूर्णतः विरक्त हो जाता है। शुक्लध्यान के चार प्रकार माने जाते हैं पृथक्त्व वितर्क सविचार, एकत्ववितर्क निर्विचार, सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती और व्युपरत क्रियानिवृत्ति। प्रथम पृथक्त्व पृथक्त्व वितर्क सविचार में यह विश्वप्रपञ्च के प्रत्येक पदार्थ के प्रत्येक अवयव में भेद का पृथक्ता का दर्शन करता है। इस अवस्था में चित्त में विचलन (चंचलता) न रहते हुए भी वह भिन्न-भिन्न वस्तुओं, पर्यायों में संक्रमित होता रहता है। द्वितीय अर्थात् एकत्व वितर्क निर्विचार साधक जागतिक पदार्थों के अनन्त सूक्ष्मताम अवयवों (परमाणु आदि) में अन्यतम का सूक्ष्मतम का चिन्तन करता है। शुक्ल ध्यान के इन दोनों प्रकारों को महर्षि पतञ्जलि स्वीकृत सूक्ष्मविषयक सविचार और निर्विचार सम्प्रज्ञात समाधि के सामानान्तर कहा जा सकता है। ये दोनों ध्यान प्रकार बारहवें गुणस्थान में स्थित योगी के द्वारा ही सम्पन्न होते हैं। re सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती नामक तृतीय शुक्लध्यान में योगी काय योग को क्रमशः सूक्ष्म करता है। यह स्थिति तेरहवें गुणस्थान (सयोगकेवली) में आरोहण करने पर आती है। यहाँ पहुँचा हुआ साधक फिर कभी पीछे नहीं मुड़ता । वह इस ध्यान में काय योग को क्षीण कर लेता है, श्वासोच्छ्वास की सूक्ष्मक्रिया मात्र शेष रह जाती है। इस स्थिति में वह चौदहवें गुणस्थान ( अयोगकेवली) में आरूढ़ होकर शुक्लध्यान के अन्तिम चरण समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति में पहुँचता है। उसकी समस्त क्रियाओं का निरोध हो जाता है। स्थूल सूक्ष्म कायिक, वाचिक, मानसिक सभी व्यापार उच्छिन्न हो जाते हैं। इस अवस्था में आत्मा पूर्ण रूप से निष्कम्प निष्कलङ्क बन जाती है। उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार शुक्लध्यान मोक्षप्राप्ति का अन्तिम सोपान है। इस प्रकार हम देखते हैं कि ध्यान की परिभाषा विविध परम्पराओं से भिन्न-भिन्न रूप से की गयी है कपिल की ध्यान की परिभाषा मतंजलि की समाधि की परिभाषा के समानान्तर है। जैन परम्परा में भी समाधि शब्द का प्रयोग न करके चित्तलय की अवस्था तक को ध्यान ही कहा है किन्तु इतना सुनिश्चित है कि जैन परम्परा में ध्यान के विविध पक्षों अथवा उससे सम्बन्धित विषयों का जितना सूक्ष्म विवेचन हुआ है, उतना अन्यत्र नहीं हुआ है। स्वामी केशवानन्द योग संस्थान B-२/१३९-१४० सेक्टर ६, दिल्ली-८५ रोहिणी ७, २. प्राणायाम साधना के लिए हमारा राजयोग साधना और सिद्धान्त नामक ग्रन्थ देखिये । ३. मोहोदयखओवसमोवसमखग जीव फंदणं भावो । De -गोम्मटसार जीवकाण्ड ५३६/९३१
SR No.012008
Book TitlePushkarmuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, Dineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1994
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size105 MB
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